पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५९३

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५५८ काव्य-निर्णय अस्य तिलक- इहाँ उन्प्रेच्छा-अलंकार है, रस नाहीं है। फेरि उदाहरन जथा- भारि डारिनसार इत कहा कमल को कॉम । भरी, 'दूरि कर हार"यों-बकति रहति नित बॉम ।। अस्य तिलक- इहाँ रस (गार) है, अलंकार नाहीं। "इति श्री सकल कलाधरकलाधरबंसावतंस भी मन्महाराज कुमार श्रीबाबू हिंदूपति विरचित काव्य-निरनए-गुननिरनयादि- अलंकार बरननोनाम एकोनविसतितमोक्तासः।" - . .- पा०-१. (सं० पु० प्र०) भूरि"। २. (सं० पु० प्र०) हार,