पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५९४

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अथ बीसवाँ उल्लास अथ स्लेस, बिरुद्धाभासादि अलंकार बरनन श्लेष, विरोधाभास' है, सब्द'-अलंकृत 'दास' । मुद्रा औ बक्रोक्ति पुनि, पुनरुती-बद भास ॥ इन पाँचन-करि अर्थ कों', भूषन कहे न कोइ । जदपि अर्थ-भूषन सकल, सब्द-सक्ति में होई ॥ वि.-"दासजी ने इस बीसवें उल्लास में "श्लेष, विरुद्धाभास, मुद्रा, वक्रोक्ति और पुनरुतवदाभास" का वर्णन किया है । साथ-ही अापका यहाँ कहना है कि इन श्लेषादि पांचों में अर्थ की विशिष्टता होते हुए भी इन्हें कोई भूषण (अलंकार ) नहीं कहता, यद्यपि शन्द-शक्ति में अर्थ की विशेषता रूप भूषण होना अनिवार्य है। ____संस्कृत-अलंकार-साहित्य में "विरोधाभास" और "मुद्रा" अर्थालंकार और श्लेष, पुनरुतवाभास तथा वक्रोक्ति शब्दालंकार की गणना में रखे गये हैं। श्लेष के संबंध में उभयात्मक (शब्दार्थालंकार) मत का उल्लेख भी मिलता है। अर्थात् , कोई इसे शब्दालंकार और कोई अर्थालंकार कहते हैं। श्राचार्य रुग्यक के अनुसार श्लेष दो रूपों-"सभंग और अभंग" में विभक्त होकर प्रथम रूप (सभंग)शन्दालंकार है और द्वितीय रूप (अभंग) अर्थालंकार है। क्योंकि सभंग-श्लेष में "जतुकाष्ठ-न्यायानुसार ( लाख, लकड़ी से भिन्न होते हुए भी उसमें चिपकी रहने कारण उससे पृथक् नहीं मानी जाती) दूसग पद वा शब्द भिन्न .(अलग ) होने पर भी एक पद वा शब्द में चिपटा रहता है, इसलिये वह शन्दालंकार है । अभंग-श्लेष - एक वृत फल-इयं (एक गुच्छे में दो फल) के न्यायानुसार एक ही पद वा शब्द में दो अर्थ लगे रहते हैं, इसलिये वह अर्थालंकार मानना चाहिये। श्री उद्मट दोंनों सभंग और अभंग श्लेषों को शब्द-श्लेष और अर्थ-श्लेष रूप देकर इन्हें अर्थालंकार-ही मानते हैं। इसी पा०-१. (स पु०प्र०) विरूवा भास"। २. (का०) (३०) (प्र०) सदालंकार" ३. (सपु०प्र०) पुनरुक्ताबदभास । ४. (का०) (वे.) (प्र०)श्न पाँचहु को अर्थ सों,"। (संपु०प्र०) इन पांचोन के अर्थ कों,"१५. (३०) मय।