पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५९८

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५६३ काव्य-निर्णय दिये हैं, पर संस्कृताचार्यों ने श्लेष के प्रथम दो भेद-"सभंग, अभग, पुनः इन दोनों के प्रकृतमात्र-श्राश्रित, अप्रकृतमात्र-आश्रित, प्रकृताप्रकृत-उभया- श्रित रूप तीन भेद और किये हैं। इसके बाद प्रकृत और अप्रकृत-मात्र- आश्रित के दो भेद क्रमशः "विशेष्य-श्लेिष्ट" तथा "विशेष्य-अश्लिष्ट', मानते हुए, 'प्रकृताप्रकृत'-उभयाश्रित का एक भेद 'विशेषणमात्र श्लिष्ट' और किया गया है। श्रीवामनाचार्य श्लेष के प्रति-"शूदकादिरचितेषु प्रबंधेष्वस्य भूयान् प्रपंचो- दृश्यते (शूद्रक-श्रादि रचित प्रबंधों में इस (श्लेष) का बहुत विस्तार देखा नाता है ) कह कर इसके विशेष भेदों को अोर लक्ष्य नहीं किया है, पर अापके बाद श्रीमम्मट ने 'काव्य-प्रकाश' में श्लेष को- "वाच्यभेदेन भिन्ना यत् युगपभाषणस्पृशः। रिलष्यति शब्दाः श्लेषोऽसावतरादिभिरष्टधाः ॥"-,८४ । अर्थात् जहाँ एक-ही उच्चारण का विषय होकर जो शब्द वाच्यार्थ-भेद के कारण भिन्न-भिन्न होकर भी श्लिष्ट होते हैं, वहाँ श्लेषालंकार होता है और वह अक्षरादि भेद के कारण पाठ प्रकार का है। श्लेष के ये अाठ भेद-वर्ण, पद, लिंग, भाषा, प्रकृति, प्रत्यय, विभक्ति और वचन" से होते हैं। उसके बाद अापने श्लेष को अभंग-सभंग रूप से भी माना है। साहित्य-दर्पणकार भी श्लेष के श्रोमम्मट-वचनात् प्रथम पाठ भेद और फिर दो सभंग-अभंग भेद मानते हैं। ब्रजभाषा-साहित्य में इस श्लेष के सभंग-अभंग भेद तो मिलते ही है, साथ- ही वहाँ इनके अतिरिक्त-"प्रकृत, अप्रकृत, प्रकृताप्रकृत" अथवा वयं, 'अवर्य' और 'वावर्य' तीन भेदों का उल्लेख भी मिलता है, इत्यादि......" प्रथम द्वि-अर्थक स्लेस को उदाहरन जथा- गजराज राजे, बरबाहिनी' की छबि छाजे, समरथ बैस सहसन मॅन-मॉनी है। आयुस को जो भागें लीने गुरु-जैन-गन, बस में करत जो सुदेस रजधानी है। महा-महा जॅन धन-लै-लै मिलें सम-किन, पदमन लेखें 'दास' बास यों बसानी है। पा०-१. (वे.) (प्र०)(स०पु०प्र०) वर बहिन"। २. (प्र०) सरथ सुबह सहसन"। (सं०पु०प्र०) समरय-साथ-सुबह सहसन"। ३. (सं०पु०प्र०) बनपद"।