पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६०२

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काव्य-निर्णय ५६७ क्रियादि के उदाहरण विरुद्ध-अलंकार के तत्वावधान में काव्य-निर्णय के १३वें उल्लास में दे चुके हैं। अथ विरोधाभास-उदाहरन जथा- लेखी में, अलेखी में जु' नाहिं छबि ऐसी औ, अस मसरी' सँमसरो दीबे कों परें लिए। खरी निखरी है अंग बनँक बँनक - हूँ ते, 'दास' मृदु - हास बीच मेलिऐ चमेलिऐ ॥ कीजै न बिचारु चार रस में अरस जैसौ , बेगि चलौ संग में न हेलिऐ • सहेलिऐ। जग के भरँन आभरँन आप रूप अनुरूप- ___ गँन तुम्हें आई केलिए - अकेलिऐ ॥ वि०-"दासजी कृत 'विरोध' या उसके 'श्राभास' का यह उदाहरण कुछ जचा नहीं, क्योंकि वह विशेष स्फुट नहीं है। विरोधाभास के दो उदाहरण- श्री कवि 'मतिराम' और 'रत्नाकर' (बा. जगन्नाथदास) जी के हमारी समझ से सुदर है, प्रथम मतिराम यथा- "मोर-पखा 'मतिराँम' किरीट में, कंठ-बनी बँनमाल सुहाई। मोहन की मुसकान मनोहर, कुडल डोलँन में छबि-छाई ॥ लोचन लोल बिसाल बिलोकन, को न बिलोकि भयौ बस माई । वा मुख की मधुराई कहा कहों, मीठी लगै अँखियाँन लुनाई ॥" "प्यार-पगे पिय प्यारे सों प्यारी, कहा इमि कीजतु मान-मरोर है। है 'रतनाकर' पै निसि - बासर तो छवि-पाँनिप को तरसो रहै। है मन-मोहन, मोहौ पै तो पर, है घनस्याम पै तेरौ तौ मोर है। है जगनायक, चेरौ पै तेरौ है, है ब्रज-चंद पै तेरौ चकोर है।" अथवा- "है ये नायक दच्छिन छैल, पै ते मॅनुकूल करयौ चित-चोर है। है अभिमानी मापने रूप को, वीन है तो सों रखौ निसि-भोर है। पा०-१. (का०) (३०) (प्र.) में नहीं हैं छबि...। २. (३०) प्रसमसरी...। (सं०- पु० प्र०) समसरी...। ३. (३०) देवे को न फैलिए...। ४. (का०) (३०) (प्र०) कॅनक...। ५. (का०)(२०)(प्र०) ऐसी.... (सं० पु० प्र०) चारु रस में रस ऐसौ..।