पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५७२ काव्य-निर्णय चूक कहो किमि चूकति सो'- जिन्हें लागी रहे उपदेस-बसीठी। मूठी सबै, जग साँचे लला, 2 मूंठी तिहारे-ही पाग" की चोठी ।।* वि०-"यहाँ भी दासजी चूक गये, वक्रोक्ति के तीनों उदाहरण श्राप से ठीक नहीं बन पड़े हैं। साथ ही यह छंद 'आपने अपने 'शृगार-निर्णय' रस- ग्रंथ में "गुरुमान" के उदाहरण में भी कुछ पाठ-भेद के साथ दिया है। ___वक्रोक्ति के उदाहरण और खास कर चारों-प्रकार की वक्रोक्ति के उदा- हरण ब्रजभाषा में कम ही मिलते हैं, क्योंकि यहाँ वक्रोक्ति शब्द-मूला है, अर्थ- मूला नहीं। फिर भी सुरति मिश्र-कृत एक उदाहरण और देखिये, यथा- "खरी होहु यारी नेक, कहा हमें खोटी देखी, सुनों बेन नेक, सुतौ भान ठौं बजाइऐ । दीजै हमें दौन, सुतौ भाज न परव कछु, गोरस दै, सो रस हमारें कहाँ पाइऐ ॥ मही देहु हमें, सुतौ मही-पति-ही दै है कोऊ, दही देहु, दही है तौ सीरौ कछु खाइए। 'सूरत' कहत ऐसें सुनि हँसि रीझे लाल, दीन्हीं उर-माल सोभा कहाँ लगि गाइऐ ॥" यह घटना-चित्र 'ब्रज-दानी' के दान-मांगने के समय की है। अतएव प्रीतम के कहे हुए प्रतिवाक्यों को, जैसे—खरी, वेन, दान, गोरस, मही, दही शब्दों का श्री प्रियाजी द्वारा अन्य अर्थ-सच्ची, वेणु, दान, गोरस (इद्रिय- रस), मही, पृथ्वी, दही (जलना) मान उत्तर देना शोभा-सागर है।" "जो आँखें हो तो चश्मेगौर से भौराके-गुल देखो। किसी के हुस्न की शरहें, लिखी हैं इन रिसालों में ॥" अथ पुनरुक्तबदाभास लच्छन जया- कहत लगै पुनरुक्त सौ, पुनरुक्त न होइ। 'पुनरुक्तबदभास"तिहिं, कहत सकल कषि सोइ ॥ पा०-१. (०नि०) हो...। २. (का०) (प्र०) ( नि०) तुम"। ३ (६०) साँच " ४, (का०) सु.."। (३०) तिहारि हू...। (प्र.) तिहारेउ.... (०नि०) तुमारे हु...। ५. (वे०) पार"। ६. (का०) पुनरुक्तबदामास" (३०) (प्र०) पुनरुक्तिवदाभास. १७. (का०) (३०) कहैं."

  • शृंगार-निर्णय (मि०दा०) पृ०-६२,१८५-गुरूमान-धीरादि ।