पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६१०

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अथ इक्कीसवाँ उल्लास चित्रालंकार बरनन जथा- 'दास' सुकवि-बाँनी थकें', चित्र-कबितन माँहिं । चमत्कार-हीनार्थ को, इहाँ दोष कछु नाहिं। 'ब' 'व', 'ज' 'य', बरनॅन' जाँनिए, चित्र-काव्य में एक । भरध - चंद को जिन करौ, छूटें लगै बिबक । प्रस्नोत्तर,-पाठांतरी, पुंनि बाँनी को चित्र । चारि लेखनी-चित्र को, चित्र-काव्य है मित्र ॥ वि.-"दासजी ने इस उल्लास में चित्रालंकारों का विविध रूपों में वर्णन किया है । अस्तु, प्रथम श्रापका कहना है कि "चित्र-काव्य" में सुकवियों की वाणी भी थक जाती है । चमत्कार का अभाव एवं हीनार्थ-दोष यहाँ दोष नहीं रहते हैं.....। साथ-ही चित्र-काव्य में 'ब' और 'व', 'ज' और 'य' समान माने जाते हैं तथा विंदु, अधचंद्र-विंदु का विचार भी नहीं होता इत्यादि...। चित्रालंकार को संस्कृत-साहित्य में विशेष समान नहीं दिया गया है । पंडित- राज जगन्नाथ भी इसके बिरुद्ध हैं । वे कहते हैं- "इसे काव्य में स्थान देना ही अनुचित है।" वहाँ एक प्रश्न यह भी है कि यह अलंकार शन्दालंकार में नहीं मानना चाहिए । कारण भी दिये हैं, पर जहाँ श्रमान्यता के कारण दिये है, वहाँ मान्यता की भी गहरी प्रस्तावना दी है। वे कहते हैं कि इस अलंकार में अर्थ गत कोई उक्ति-वैचित्र्य नहीं रहता, साथ ही पूरे शन्दों में चमत्कार भी नहीं, इसलिये यह अर्थालंकार तो नहीं हो सकता.....१ अपितु शन्दालंकार हो सकता है । अतः साहित्य-दर्पण ( संस्कृत ) में प्राचार्य विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं-"यद्यपि इस अलीकर के वर्ण उन-उन अलंकारों में लिखने के कारण ही चमत्कार पूर्ण होते हैं, फिर भी जो वर्ण श्रोत्राकाश के साथ संबंध होने के कारण-सुनाई देने पर चमत्कार पूर्ण ज्ञात होते हैं, उन श्राकाश-निष्ठ वणों के पा०-१.(प्र.) (सं० पु० प्र०) कथ...। २. (३०) व व ज बर्न निज...। ३. ( स० पु० प्र०) के...! ४.( स० पृ० प्र०) ले...।