पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६१२

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१७७ काव्य-निर्णय अगनित अंतरलापिका यों बरनत कबिराइ। बहिरलापिका जॉन उर', छंद बाहर पाइ।। वि- 'दासजी ने चित्रालंकार रूप-अंतापिका, बहिर्लापिका, गुप्तोत्तर, व्यस्त-समस्त, अनेकानेकोत्तर, क्रम व्यस्त-समस्त, कमल बद्ध, गतागत और सुख- लादि नौ प्रकार भेद मान पुनः 'अंतर' और बहिर्लापिका के अनेक भेदों का उल्लेख किया है तथा उदाहरण-गुप्तोत्तर, व्यस्तसमस्तोत्तर, एकानेकोत्तर (अनेक कों का एक उत्तर),नागपासोत्तर, क्रमव्यस्तसमस्तोत्तर,कमलबंध,शृंखलाबंध,चित्रोत्तर अंतापिका, वहिापिका, पाठांतर-चित्रोत्तर, लुतवर्ण, मध्यवर्ण-लुप्त, परिवर्तित वर्ण, निरोष्ठामत्त, अमत्त, निरोष्ठामत्त, अजिह्वावर्ण गत, वर्ण नियमित-एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह और सात वर्ण नियमितों के उदाहरण, लेखनी-चित्र, खङ्गबंध, कमलबंध, कंकनबंध, डमरूबंध, चंद्रबंध, चक्रबंध, धनुपबंध, हारबंध, मुरुजबंध, पर्वतबंध, छत्रबंध, वृक्षबंध. कपाटबंध, मंत्रगति-बंध, अश्वगतिबंध, सुमुखबंध, सर्वतोमुख, कामधेनु और चरण-गुप्तादि अनेक चित्रालंकार-भेदों का वर्णन किया है । 'दासजी ने ये सब भेद प्रश्नोत्तर चित्रालंकार के अभिन्न अंग मानकर प्रथम 'गुप्तोत्तर" चित्रालंकार का वर्णन किया है । . प्रथम गुप्तोत्तर लच्छन जथा- बाच्य-अत' सब्दच्छलँन, उत्तर देइ दुराइ । 'गुप्तोत्तर' ता सों कहें, सकल सुमति-समुदाइ। वि०-“जहाँ वाचयार्थ को छिपाकर शब्द-छल-द्वारा उसका गुप्त अन्यार्थ के सहारे उत्तर दिया जाय, वहाँ गुप्तोत्तर-अलंकार होता है। अस्य उदाहरन जया- सब तँन पिय बरन्यों मित, कहि-कहि रुपमाँ-बेन । सुंदरि भई सरोस क्यों, कहत कमल-से नेन । अस्य तिलक इहाँ नायिका ने "कॅमल-से" सन्द ते "कम+लसे" = योरी सोभावारे अथवा 'के-जल, मल-से-कीच से "जल की कीच के समान" अर्थ मान के रोष कियो, अर्थात् सरोस है गुप्त-उत्तर दियो । पा०-१. (का०) (०) (प्र०) बहिरलाप जानों उतर...। २. (प्र०) वाच्यातर...!