पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय पुनः उदाहरन जथा- सुत सपूत, संपत - भरी, अंग अरोग सुढ़ार। रहै दुखित क्यों कॉमिनी, "पिया' करै बहु प्यार ॥" अस्य तिलक इहो सखी के प्रस्न रूप "कॉमिनी' इतनी-बात-होत-हू-सब सुख होत- हु दुखी क्यों रहै की उत्तर दूसरी "पिया करै बहु प्यार"=पिय भनेक-स्त्रिन सों प्यार करत है, यह गुप्त उत्तर दियो । व्यस्त समस्तोत्तर-लच्छन जथा- द्वै, त्रि, बरननॅन काढ़ि पद, उत्तर जाँनिय ब्यस्त । 'ब्यस्तसमस्तोत्तर' वही, पिछलौ उतर समस्त ।। उदाहरन जथा- कोंन दुखद, को हंस - सौ, को पंकज - आगार । तरुन-जनन को मँन-हरन को करि चित्त-बिचार ।। कोंन धरें है धरनि कों, को गयंद-असबार। कोंन भमाँनी को जनक, है-"परबत - सरदार ॥" अस्य तिलक इहां कम सों उत्तर-"पर, बत, सर, दार, परबत अरु परबत-सरदार- हिमांचल' कहि सब में ब्यस्त उत्तर एक पद-"परवत-परदार" सों दियौ, याते समस्तोत्तरब्यस" उत्तर दियो । वि०-"दासजी ने यहाँ “समस्त-व्यस्त-उत्तर" रूप चित्रालंकार का वर्णन किया है, अर्थात् संपूर्ण छंद-प्रयुक्त प्रश्नों का उसी छंद के पाद-द्वय के द्वारा भंग- अभंग रूप से उत्तर प्रस्तुत किया है। जैसे इन दो दोहों में-"कोंन दुखी, को हंस सौ, को पंकज-आगार, तरुन-जनों का मन हरने वाला कोन, धरनि (पृथ्वी) को कोन धरे है, हाथी का असवार कोन और भवानी (पार्वती) का जनक ( पिता ) कोन" । इन सात प्रश्नों का उत्तर दूसरे दोहे के अंतिम- चरण-"परबत-सरदार” को भिन्न-भिन्न कर और बाद में समस्त पद जैसे-पर, बत, सर, दार, परबत, परबत-सरदार से क्रमशः दिया है । यथा-कोंन दुखी, 'पर' =शत्रु , हंस सा कोन, बत = बतक ( पक्षी विशेष ), पंकज ( कमल ) का पा०-१. ( का० ) (३०) पीउ...। २. ( का०) .... (०) (प्र०) य... ३. ( का० ) उतर जानिए...। (३०) उत्तर जानिऐ .. । ४. (6० पु० प्र०) मनाली...।