पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय २७ इति लच्छनॉ-सक्ति निरनै वि०-"दासजी ने लक्षणा-शक्ति के रूढि के अनंतर 'प्रयोजनवती-लक्षणा के आठ भेद माने हैं। काव्यप्रकाश के कर्ता 'मम्मटजी' ने प्रथम-"लक्षणा- तेन षडविधा" रूप छः भेद कह पुनः उन्हें बारह प्रकार का माना है। विश्व- नाथजी ने अपने साहित्यदर्पण' (संस्कृत) में शुद्धा के समान गौणी के भी 'उपादान' और 'लक्षण' लक्षणा भेद विशेष कहते हुए इनको 'सारोपा' और साध्यवसाना' में विभक्त कर 'गौणी' के चार भेद किये हैं। अतएव गौणी के चार, शुद्धा के चार फिर इन दोनों के 'गूढ' और अगूढ-व्यंग-भेद से सोलह इसके बाद इन सोलहों के भी 'पदगत' और 'वाक्यगत'-भेद से बत्तीस फिर इनके भी 'धर्मगत' तथा 'धर्मीगत'-भेदों-द्वारा चोसठ (६४) भेद किये हैं, पर मुख्य भेद इस प्रकार होते हैं, जैसे-"प्रयोजनवती-गौणी, शुद्धा । गौणी-सारोपा, साध्यवसाना। शुद्धा-उपादान, उपादान- सारोपा, साध्यवसान। लक्षण लक्षणा-सारोपा, साध्यवसान । रुढि-लक्षणा-शुद्धा, गौणी । शुद्धा- उपादान लक्षणा, गौणी-उपादान लक्षणा । अथवा-लक्षणा=रूढि, प्रयोजन- वती । रूढिरूढि यौगिक, योग-रूढ । प्रयोजनवती- शुद्धा, गौणी। शुद्धा- उपादान, लक्षणा, सारोपा, साध्यवसान । गौणी-सारोपा, साध्यवसान इत्यादि....." अथ-विजनाँ बरनन बिंजना-निरनै बरनन 'सवैया' जथा- बाचक-लच्छक भाजन-रूप हैं, बिंजक को जल मानत ग्याँनो ॥ जॉन परै न जिन्हें तिनके, मॅमझाइवे को ये 'दासं' बखाँनी ।। ए दोऊ होत 'भब्यंग' 'सब्यंग','यों ब्यंग इन्हें बिन लावै न बाँनी । भाजन लाउन' नीर-बिहीन, न इ सकै बिन-भाजन पानी ।। पुनः दोहा' जथा- 'बिंजन', बिंजंक' जुक्त पद, ब्यंग' तासु जो अर्थ । ताहि बूझिये की सकति, है बिजनौं समर्थ ।।. पा०-१. (सं०७०) सम्यगि-व्यगि...। २. (प्र०) भाजन लाईऐ...। (सं० प्र०) (३०) भाजन ल्याईएँ . । ३. (सं०-०) व्यंजक व्यंजन-जुक्त है...।

  • , व्य० म० (ला० म०) १०१ ।