पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६२२

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काव्य-निर्णय अस्तु, समूह को सुख दाता कोंन,-"लहि" = अर्थ-प्राप्ति, किसकी उँगलियाँ अच्छी है-“बाज" - बाज पक्षी की, मेघ क्या देते हैं- "जल", विरही को चंद कैसा लगता है -जवाल (सा)-अत्यंत दुखद, तुमार (पाले) को कोंन जलाता-नष्ट करता है,-"जहि" = सूर्य, लघु (छोटा) नाम किसका ?- "वाय (वाहि)= वायु पवन, हवा का, नृत्य में क्या विचारणीय ? "लय" =धुन-अावाज, फंदे में व्याध किसे फसाते हैं.–लवा (पक्षी) को, फूटे पात्र (वर्तन) में क्या लगाकर भात (चावल) पकाते हैं-"हिल=गीला पाटा लगाकर, भाई को कुश (श्रीराम-पुत्र) क्या कह कर बुलाते हैं-"हिय" = प्यारे कहकर, बैल को बोली कब बंद होती है--"हिवाल= शीत के समय, राजा को कोन सुहाता है-वान (बाल) = वाला, तरुणा-स्त्रियाँ, किस स्थान में पक्षी विहार करते हैं-“वाहिज"=शून्य-एकांत स्थान में, प्रियतमा (स्त्री) पति से क्या कह कर बोलती है-“वाहि'=उनको, रोगियों को क्या बंद है -"नल-वाहि'.- स्नान ।" यहाँ एक बात जैसा कि दासजी ने पूर्व में लिखा है और जो चित्रालंकारों में मानी जाती है,ध्यान में रखनी चाहिये । वह यह कि "ज" य और "य" ज यहाँ बराबर होता रहता है । इसी प्रकार 'ब' व, व, 'ब'।" अथ पाठांतर चित्रालंकार लच्छन जथा - बरन-लुपै', बदलें, बढ़े, चमतकार ठहराइ । सो 'पाठोत्तर'२चित्र है, सुनों सुमति समुदाइ॥ वि०-"जहाँ वर्ण का लोप कर-उसे बदल कर, अथवा बढ़ाकर चमत्कार पैदा किया जाय–टहरा जाय, वहाँ “पाठांतर' या 'पाठोत्तर' चित्रालंकार कहा जाता है । दासजी ने इस अलंकार के लुप्त वर्ण-श्रादि वर्ण-लुप्त, मध्यवर्ण- लुप्त और वर्ण-विपर्यय, अर्थात् उसे बदलकर रूप तीन उदाहरण दिये हैं । प्रथम बरन लुप्त उदाहरन जथा- तमोल-अँगाइ धरौ इहि बारी, मिलिबे को जिय में रुचि भारी। कन्हाइ"फिरें कबधों सखि प्यारी, बिहार की भाज करौ अधिकारी ।। अस्य तिलक इहाँ प्रत्येक चरन के आदि (प्रथम) को बर्रन छाँदि के पदिबे ते दूसरी अर्थ निकर है। पा०-१. (व.) लुऐ ...। २. (१०) (प्र०) पाठांतर...। ३. (सं० पु० प्र०) सो पाठो- तर चित्र है, सुनो...। वरन लुपे, बलले बद...॥ ४. (३०: (सं० पु० प्र०) की है...। ५. (प्र०) कन्हाइ.... ६. (का०) (३०) (प्र०) तब.... ७. (प्र०) लो... म. (का०) हार की...!