पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६२३

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५८८ काव्य-निर्णय जथा- "मोल मगाइ धरौ इहि बारी', लोबे की जिय में रुचि भारी। न्हाइ फिर कब धों सखि प्यारो, हार की प्राज करौ अधिकारी॥" वि०-"दासजी का यह उदाहरण प्रत्येक चरण का प्रथम वर्ण लुप्त करने से विपरीतार्थक रूप एक दुसरा ही उपर जैसा छंद बन जाता है।" अथ मध्य बरन लुप्त को उदाहरन जथा- मग में मिलबोई भलौ, नहिं 'बातुल' सों लाल । नहिं स ममायौ' दुहुँ सबद को, मध्य लोपिऐ हाल ।। अस्य तिलक इहाँ "बातुल' बरैन में ते 'तु' मध्य को अच्छर लोप-निकार करि पदिवे ते "बाल" ते मग ( मार्ग=रास्ते ) में ही मिलबौ भलौ" ( सुंदर ) है ये अर्थ होइ है। वि... "दासजी के इस मध्य वर्ण-लुप्त के उदाहरण में "बातुल" के 'तु' रूप मध्य वर्ण को निकाल देने से-लोप करने से, ऊपर लिखा अर्थ प्रकट होता है । दूसरा अर्थ जो "तु' के लुप्त न करने से निकलता है, वह भी सुदर शिक्षा- परक है-"बातुल" विशेष बात बनाने वाले से मार्ग में मिलना उचित नहीं... इत्यादि ।" अथ बरँन बदले को उदाहरन जथा- साज सब जाको बिन माँगे करतार देत, ___परम अधीस सब भूमि थल देखिए। दासी-'दास' केते कर लेत हैं सधरॅम ते सलच्छन, सहिंमत, सहरख अब रेखिए । सील तँन सिरताज सर्खन बढ़ाएं ज्यों सकल मा साँच में जगत जस पेखिए। पा०-१. (का०) भारी...। २. (का०) लीबे की है जिय...। (३०) लेबे की है...। (प्र०) लबे की...। ३. (प्र०) जब लो...। ४.(३०) मत गमें मिलगी...। (प्र०) मारग में पिलको भलो...। (सं० पु० प्र०) मत मग मों मिलवो...५. (प्र०) तहिं.... ६. (प्र०) सो है...। ७. (सं० पु० प्र०) बस ..। २. (सं० पु० प्र०-दि०प्र०) जेते .." ६.(२० पु० नी० सी० ) आस...।