पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६२४

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५८६ काव्य-निर्णय हिंद पति-गुन में जे गाए में 'सकार"ताकों- बैरिन में म ते "नकार" कर लेखिए। अस्य तिलक- या कवित्त में 'स' मच्छर की और 4 'न' अच्छर लगाइ के पदिये ते उलटौ- ही अर्थ होइ है। वि०-"संमेलन-प्रयाग की प्रति में ऊपर लिखा तिलक इस प्रकार मिलता है-"सकारन की ठौर 'नकार' करि पढ़े दूसरौ अर्थ । बर्न बढ़े कौ पहिले वर्न लुप्त ही जानबी।” अस्तु इन तिलकों और मूल छंद के कथनानुसार 'स' हटाकर 'न' स्थापित करने से इस छंद का नीचे लिखा रूप हो जायगा, यथा-- "नाज नव जाकौं बिन मागे करतार देत, ____ परॅम अधीन नब भूमि थल देखिए । दानी-दान केते कर लेत न धरॅम ते, न लच्छिन, न हिंमत, न हरख अबरेखिए । नील तन निरताज नखन बढ़ाएं ज्यों __ नकल भाने नाच में जगत जन पेखिए। हिंदू-पति-गुन में जे गाए........" अथ निरोष्ठ-मत्त-आदि चित्रोत्तर लच्छन जथा- बरनि 'निरोष्ठ-अमत्त' पुनि, होत निरोष्ठामत्त । पुंनि अजीह नियमित बरॅन, बाँनी-चित्रै तत्त ॥ .................. " छाँदि 'पवर्ग'-'उ..'ओ'-बरँन, और बरन सब लेहु । या को नाम 'निरोष्ठ' है, हि* न धरौ संदेहु ॥ वि०-"दासजी ने इन दो दोहों में-निरोष्ठ चित्रोत्तर, अमत्त (इ, ऊ, ए, ऐ-श्रादि मात्रा-रहित) चित्रोत्तर, निरोष्ठामत्त ( जिसमें निरोष्ठ वर्णों के साथ मात्राएँ, न हो) और 'अजीह' (अबिता - जिसमें जोभ न लगे) चित्रोत्तर का वर्णन किया है। पहिले श्राप निरोष्ठ-जिसमें पवर्ग (प, फ, ब, भ, म) और 'उ' स्वर के बिना छंद निर्माण करने का उदाहरण देते हैं, यथा- पा०-१. (का०) (१०) (प्र०) सकारे...। २. (का० ) (३०) (प्र.) नकारे...। ३. (०) निरुष्ठा"। ४. (का०) (३०) (प्र०) अजिह"। ५.(३०)"।६. (का०) हियो धौ निखदेहु । (३०) हिऐ धर निःसंदेह । (प्र०) हिऐ धरौ निसंदेह ।