पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६४८

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काव्य-निर्णय ६१३ और बा" द्वितीय चरण का दूसरा, चौथा, छठवां, आठवां, दसवां, बारहवां, चौदहवां और सोलहवाँ अक्षर- हां, हां, रे, रे, रे, थ, नु, न" से संयोग करने पर "मंत्र-गति" रूप में यह अलंकार बनता है। संस्कृत में इसका दूसरा नाम-"गोमूत्रिकाचित्रालंकार" है। अथ अस्व-गति चित्रालंकार जथा- जहाँ-जहाँ प्यारे फिरें, धरें हाथ धन-बान । तहाँ-तहाँ तारे विरें, करें साथ मॅन प्रॉन ॥ अस्य उदाहरन हो जहाँ • प्या रा1ि क२५/२" सा२१ | मैं२९| नु प्रॉ3/न.on वि०-'यह दासजी कृत "अश्व-गति"..-शतरंज ( खेल ) के घोड़े की भांति ढाई घर चलने की चाल से पढ़ा जाने वाला 'चित्रालंकार है, जो बत्तीस- कोष्ठकों (घरों) में विभक्त है । इसे चित्र में दिये गये अंकानुसार पढ़ने से ऊपर उद्धत दोहा-छंद बनता है।" अथ सुमुख-बंध चित्रालंकार जथा--- सुबानी, निदानी. निडॉनी भबानी। दयाली, क्रिपाली', सुचाली, बिसाली ॥ बिराजै, सुराजै, खलाजै, सु साजै । सु चंडी, प्रचंडी, भखंडी, भदंडी। वि०-"दासजी कृत यह "सुमुख-बद्ध" चित्रालंकार नीचे लिखे अनुसार सोलह प्रकार से छंद ( भुजंगप्रयात ) बनाता है। चाहे जहाँ से चरण-गत चार- चार शब्दों को लेकर उलटते-पलटते क्रमशः (अनेक) छंद बन सकते हैं।" यह उदाहरण-कामधेनु, सर्वतोमुख या भद्र रूप से भी लिखा, या कहा जा सकता है।" पा०-१. (प्र०) कपाली...।