पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६६३

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६२८ काव्य-निर्णय रूप से किया है । परिभाषा रूप दोही बातें श्रापने कहीं हैं, जो ध्यान देने योग्य हैं । श्राप कहते हैं-"दोष, काव्य में विफलता के द्योतक हैं, उसके कारण होते हैं और इनका विद्वानों को अवश्य परिहार करना चाहिये। सब से प्रथम दोष- लक्षण-विवृत्ति प्राचार्य वामन ( ई० अाठवीं शताब्दी के अासपास ) कृत मिलती है-"गुणविपर्ययात्मनोदोषाः" (गुणों से विपरीत स्वरूप वाले दोष )। श्रापके बाद दोष-स्थिति बदल गयी, क्योंकि अब काव्य का सौंदर्य रूप-गत नहीं, श्रात्म- गत माना जाने लगा, जिससे दोपों की स्थिति विपरीत हो गयी। अतः वे मूल में प्रात्म-गत रस से और गौण मैं उस ( रस ) के आश्रय से संबद्ध हो जाने के कारण शब्द और अर्थ-गत माने जाने लगे। यह स्थित भी उत्तर ध्वनिकाल के समय तक स्थिर न रह सकी। उसमें भी मौलिक अंतर उपस्थित हो गये । पहिले दोषों के वाह्य वस्तु (शब्द-अथ ) गत-रूप पर जोर दिया जाता था, अब श्रांतरिक अात्म ( रस) गत-रूप पर भी बल दिया जाने लगा। यह विभेद दोप-विषयक धारणा का नहीं, काव्य-विषयक धारणा का था। जब काव्य का रूप वाह्य तथा वस्तु-गत था, तब दोष वस्तु-गत थे और जब वे काव्य-रूप प्रात्म-गत मान लिये गये, तब वे अात्म-गत रस-रूप हो गये। स्थिति उनकी वही बनी रही, जो पहिले थी, अर्थात् काव्य के वे पहिले भी अपकारक थे, बाद में भी वही रहे। ___जैसा पूर्व में लिखा जा चुका है कि श्रादि श्राचार्य श्री भरतमुनि ने दोषों की चर्चा तो की, उनकी नामावली भी दी, पर उनका कोई वैज्ञानिक वर्गोकरण नहीं किया-दस संज्ञा में ही उलझे रहे । बाद में प्राचार्य "भामह" ने अपने प्रकार से दोषों का वर्गीकरण "सामान्य और वाणीगत" के साथ गुणत्व-साधन भी कहते हुए प्रकारांतर से दोषों के तीन वर्ग माने । इन तीनों वर्गों के अंतर्गत इकईस (२१) दोषों का उल्लेख प्राकृत प्रथ-"काव्यालंकार" मिलता है। श्री भामह के इन त्रिवर्ग विभूषित दोषो के पार्थक्य का क्या श्राधार था, यह उक्त ग्रंथ से स्पष्ट नहीं होता। आपने न तो वहाँ यही स्पष्ट किया है कि वाणी के दोषों से आपका अभिप्राय क्या था और न वहाँ यही जाना जाता है कि सामान्य और अन्य दोषों का आधार भूत अंतर क्या है। यों तो श्राचार्य दंडो ने मामह-प्रसूत दोषों को मान्यता दी है, वर्ग ( भेदाभेद ) भी वहो माने हैं, पर 'अन्य-दोषांतर्गत'-प्रतिज्ञाहेतु-दृष्टांत दोष की अवहेलना की है। इसके प्रति आपने कहा है-"प्रतिशहेतु-दृष्टांत की हानि दोष है, या नहीं, यह कानों का अप्रिय (कट) और कर्कश विचार है,-जटिल समस्या है, उसमें साहित्य मनीषियों को नहीं उलझना चाहिये ।" आपके बाद प्राचार्य वामन (ई. की