पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६६६

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काव्य-निर्णय अबाचको, असलील, ग्राम्य, संदिग्ध न कीजै । अप्रतीति, नेपाथ, क्लिष्ट को नाम न लीजै ॥ अभिमृष्ट-विधेह, बिरुद्ध-मति, छै-दस दुष्ट ए सब्द कहि । कहुँ सन्द समासौ के मिलें, कहूँ एक-द्वै अच्छर-हि ॥ वि०-"दासजी ने इस छंद-द्वारा सोलह (छै-दस)शब्दगत दोषों का जैसे- श्रुतिकट, भाषाहीन, अप्रयुक्त, असमर्थ, निहितार्थ, अनुचितार्थ, निरर्थक, अवा- चक, अश्लील, ग्राम्य, संदिग्ध, अप्रतीति, नेयार्थ, क्लिष्ट, अविमृष्ट-विधेय और विरुद्धमति-इत्यादि नाम-युक्त वर्णन किया है। ये सब काव्य-प्रकाश (संस्कृत) जन्य है । दास कृत "भाषा-हीन" संस्कृत-च्युतिहीन का ही भव्यरूप है और कुछ नहीं। जैसा ऊपर लिखा गया है कि दासजी प्रयुक्त उक्त समस्त दोष मम्मट के काव्य-प्रकाशानुसार हैं । अस्तु, वहां उक्त उदाहरणों के बाद कहा गया है कि ऊपर जिन सोलह दोषों का उल्लेख किया गया है, उनमें से 'च्युतसंस्कार (भाषाहीन), असमर्थ और निरर्थक को छोड़ कर शेष दोष वाक्यों में (वाक्य- गत) भी पाये जाते हैं और कुछ पद-भाग में भी, किंतु दासनी मान्य दोषों में तीन-ही ऐसे दोष है, जो शब्द और अर्थ के अंतर्गत पाते हैं। उनके नाम हैं-प्राम्य, संदिग्ध और अश्लील तथा जैसा कि दासजी ने ऊपर की छप्पय में कहा है- "कहूँ सम्द-समासौ के मिलें, कहूँ एक-दै मच्छर-हि।" अस्तु, श्रुतिकटु-श्रादि तेरह दोष 'समास-गत' भी हो सकते हैं-"श्रुतिकटु- समासगतं यथा।" वहाँ (संस्कृत में) अवाचक का एक विभागीय दोष उपसर्ग- अवाचक भी माना है। साथ-ही अश्लील के-लज्जा, घृणा और अमंगल नाम के तीन भेद और लिखे गये हैं।" मथ नुति-कटु-दोष लच्छन-उदाहरन जथा- कॉनन कों जो कटु लगै', 'दास' सो नति-कटु सृष्टि । "त्रिया-मलक, चच्छत्रबा, उसे परत-ही दृष्टि ॥". पा०-२. (का०) (०) (प्र०) ने अर्थ...। २. (का०) (a ) (प्र०) दस (सं०- पु० प्र०) बंब मुदष्ट र सबद · । (रा० पु० प्र०)"कहु । ३. (रा०पु०प्र०) मच्छर । ४. (सं0- पु०प्र०) कानन को कटु जो लगे।

  • काम्य-प्रभाकर (मा०) पु०-६१६ ।