पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६७१

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६३६ काव्य-निर्णय धाम', कमल कों 'सहसपान', फूलबे को 'निद्रा-सज्यौ, भौरा कों पीत-मुख भौ आनंदित हैवे को 'सानंदि' कयौ, पै ऐसे अरथ में ए सब सबद काहू ने कहे नाही 'ताते' भवाचक-दोष-जुक्त हैं। वि०-"जिस वांछित अर्थ के शब्द का प्रयोग किया जाय, वह उसका वाचक न हो और जिस रीति को न तो कवियों ने कहा हो और न वह किसी- द्वारा मान्य ही हो, पर उससे अभीष्ट-अर्थ ठहरा लेना-मान लेना, 'अवाचकत्व शब्ददोष" कहा जाता है। ___ दासजी कृत इस अवाचक-दोष-उदाहरण के दो 'तिलक' मिलते हैं, एक जो हिंदी-साहित्य-संमेलन प्रयाग का पाठ अनेक हस्तलिखित-प्रति अनुमोदित है और जिसे ऊपर उद्धृत किया जा चुका है तथा दूसरा पाठ प्रतापगढ़ राज्य-पुस्त- कालय की हस्त-लिखित तथा वेंकटेश्वर (बंबई ) और बेलबेडियर प्रेस प्रयाग को मुद्रित प्रतियों का तिलक है जो नीचे उद्धृत किया जाता है, यथा- "सरद को 'सप्तहय' औ कमल को 'सहसपत्र' कहे हैं, मैं इन्हें इहाँ विषम- हय श्री सहसपान कहयौ, ताते आधे सब्द इहाँ दुष्ट है। पीतमुख भौरा को भी बिस्नुधाँम भकास को कहयो, पै एहू काहू ने कहे नाही, फलिबे को नींद- तजनों भी आनंदित हैबे को सानंदि कयौ सो सबद भवाचक दोष-जुक्त हैं।" ___ अस्तु, दूसरे 'तिलक प्रयुक्त-विषमहय ( सप्तहय ) शरद-अर्थ में प्रयुक्त हमारे देखने में भी नहीं पाया। कोपों में सप्ताश्व- "भास्वद् विस्वर सप्ताश्वंहरिदश्योष्णरश्मयः ।" -० को १, ४, २६, सूर्य, के, अर्थ में लिखा मिलता है, शरदार्थ में नहीं। साथ-ही इन दोनों तिलकों में एक शब्द 'बंद' जो यहाँ 'कैद से छूटने में प्रयुक्त हुश्रा है, पर विचार नहीं किया गया है । अस्तु यह भी अवाचक है, जो कवि के अभीष्ट अर्थ को नहीं प्रकट करता। अथ असलील-सब्द दोष लच्छन-उदाहरन ... पद-'अस्लील' कहिऐ तहाँ', ना, असुभ, लज्जॉन । "जीमूतँन दिन पितृ-गृह, तिय' पग ये गुदरीन ॥". पा०-१. (प्र०) जहाँ । (सं० पु० प्र०) पदस्लील पैऐ जहाँ । २. (३०) तिपय गयह गुदरांन । (सं०पु०प्र०)."तिय धृग ये"

  • काव्य-प्रभाकर (भा०) पृ०-६४२।