पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६७४

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काव्य-निर्णय अस्य तिलक कारौ चोर 'श्रीकृष्ण' को कालिदास के ही काव्य में कहयौ (सुन्यों) है, अंनत नाही, वौ-ह सिंगार-रस में ताते अप्रतीत दोष है। वि०-"जो शास्त्र-विशेष में तो कहा गया हो, पर प्रसिद्ध न हो, ऐसे शब्दों के प्रयोग करने पर 'अप्रतीति' दोष कहा गया है- 'अप्रतीतं यत्केवले शास्त्रे प्रसिद्ध" (का० प्र०-७, ११)। अस्तु, "कारे-चोर" में काला (कारे) शब्दों संस्कृत शब्दानुसार कृष्ण-वर्ण और भगवन्नाम-संज्ञादि दोनों ही अर्थों का बोध करा रहा है, यथा-"विष्णर्नारायणः कृष्णो०......" (अ० को०-११, १८) और "कृष्णे नीलासितश्याम...." ( श्र० को०-१, ६, १४ )।" तिलक-निहित भाव-युक्त 'कारे-चोर' शब्द 'कालिदास' प्रयुक्त है ही। अथ नेप्रार्थ सब्द दोष लच्छन-उदाहरन जथा- 'नेधारथ' लच्छार्थ जहँ, ज्यों-त्यों लीजै लेखि । "चंद चारि-कौड़ी लहै, तो भानन-छबि देखि ॥". अस्य-तिलक इहाँ चंदा तेरे मुख की बराबरी नाहीं कर सकत, ये अर्थ "चंद चारि कौड़ी बहै" ते ज्यों-त्यों माननों 'नेमार्थ दोष है। वि.-"जिस शब्द का असंगत लक्षणावृत्ति से येनकेन-प्रकारेण मुख्यार्थ समझा जाय, वहाँ ऊपर लिखा दोष कहलाता है । नेयार्थ-"कवि की अशक्ति-व्युत्पत्ति रूप सामर्थ्य के अभाव से लक्ष्य- अर्थ का प्रकाशन" कहलाता है, ऐसा संस्कृत-प्राचार्यों का मत है । कुमारिल भट्ट के मतानुसार 'नेयार्थ-गम्य' पद (शब्द) लक्षणा के लिये निसिद्ध बतलाया है, क्योंकि "शक्ति-विशिष्ट सामर्थ्य से प्रसिद्ध या शब्द-स्वभाव ही से सिद्ध अनादि- काल की कुछ लक्षणाएँ होती है और कुछ प्रयोजन के अनुसार बना भी ली जाती हैं, पर वे 'रूदि' और प्रयोजनवती' लक्षणाओं को छोड़कर शक्ति-हीन होने के कारण स्वीकार नहीं की जाती । अस्तु, इस प्रकार जो रूढ़ि और प्रयोजनवती लक्षणात्रों से मिन्न लाक्षणिक शन्द हैं उन्हें 'नेयार्थक' कहा जाता है। दास- पी में ऐसे-ही लक्षार्थ रूप "चंद चारि कौड़ी" शब्दों से नेयार्थक "चंद तेरे मुख को बराबरी नहीं कर सकता 'अर्थ प्रकट किया है।" पा०-१. (का०) (२०) (प्र०)(का० प्र०), तब ।

    • काव्य-प्रभाकर (मा०) १०-६४२, ६४३।