पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६७७

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६४२ काव्य-निर्णय पुनः उदाहरन- नाथ-प्रॉन को देखते, जो असकी बस ठान । "तौ सखि, धिग बिनकाज की', बड़ी-बड़ी अँखियाँन ॥" वि०-"यहाँ भी प्राणनाथ न कह "नाथ-प्राण कहना अभीष्टार्थ साधन में बाधक है, इसलिये उक्त दोष है, क्योंकि प्रसिद्ध विधेय का यहाँ अभाव है।" अथ प्रसिद्धविधेइ जुक्त दोष उदाहरन जथा- प्रॉन-नाथ को देखते, जो न सकी बस ठॉन। "तौ सखि धिग बेकाज की, बड़ी-बड़ी अँखियाँन ॥" वि०-"जहाँ प्रसिद्ध विधेय से विरुद्ध अर्थ की अभिव्यक्ति हों-प्रयोग- विरुद्ध शब्द का उपयोग किया जाय, वहां-"इस प्रकार का दोष" कहा जायगा । जैसा कि बे-काज = काम में न आनेवाली बड़ी-बड़ी आँखों का होना "से प्रकट हो रहा है।" अथ विरुद्ध-मतिकृत सब्द-दोष लच्छन-उदाहरन जथा- सो 'बिरुद्धमतिकृति' सुने, लगै बिरुद्ध बिसेख। "माल-अंबिका मन के, बाल सुधाकर देख॥". पुनः उदाहरन- कॉम गरीबन के करें,जे भकाज ही मित्र । जो माँगिऐ सु पाइऐ, ते धुनि पुरुष विचित्र । अस्य तिलक इहाँ प्रथम दोहा में--उदाहरन में, प्रथम अंबिका काहि पाछे सुधाकर = ब्रांझन कों कयौ, ताते विरुद्धमति कृत दोष भयो, प्रथम सुधार नौ पाछे अंबिका कहनों हो। दूसरे दोहा (उदाहरण ) में जो-जो बात स्तुति की कहीं है, उन सों निंदा-हू प्रघट होइ है, ताते यह विरुद्धमतिकृत दोष है। वि.-"जिन शन्दों से अभीष्ट-अर्थ प्रकट न होकर विरुद्ध अर्थ का ही द्योतन हो-प्रयोग-विरुद्ध शब्दों का व्यवहार किया जाय, वहीं उक्त दोष बन पा०-१. (प्र०) पिग-णि सखिने काज की, वृथा बड़ी" (का०) (०) या बड़ी... । २. (का)( )(प्र.) बिन"। ३. (सं० पु० प्र०) लेखि । ४.(का०) (३०) (प्र.) के 1५.(का०) (प्र०) मांगिय सो पाइए"।

  • काव्य-प्रभाकर (मा०) १०-६४३ ।