पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६७८

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६४३ काव्य-निर्णय जाता है, जैसा प्रथम उदाहरण रूप दोहे के तिलक में बतलाया गया है। साथ- हो "अंबिका-रमॅन" से एक बात "विरुद्धमतिकृत" दोष की और सृष्टि होती है, क्योंकि पद से भी विरुद्ध-मति उत्पन्न होती है। संस्कृत में अंबिका माता को भी कहा गया है-"अंबा माता."." ( श्र० को०--१, ७, १४), उससे रमण करने काला, अर्थात् पिता"। अस्तु इस प्रकार के कथन में अभीष्ट-अर्थ का स्तुति-भाव-विभूपित अर्थ का तिरस्कार होता है, इसलिये उक्त दोप है। दूसरे उदाहरण में भी यही बात है। वहाँ भी अभीष्ट-अर्थ के विपरीत जैसा कि "जे अकाज ही मित्र"-पदादि से "अयोग्य-कार्य के मित्रदि से विरुद्ध मति उत्पन्न होती है-अर्थ के लक्षार्थ से विपरीत ध्यान जाता है।" ____ "इति सन्द दोषाः" अथ वाक्य-दोष नाम बरनन 'प्रतिकूलाच्छर' जॉनि माँनि हतवृत्त' विरानि । न्यूनाधिक-पद, कथित-सबद पुंनि पततप्रकरनि ।। तजि सँमाप्त पुनि आप्त', चरन अंतरगत-पद गहि । पनि अभवनमत जोग जाँनि अकथित-कथनीयहि ॥ पद प्रस्थानस्थ' संकीरनौ, गरभित, अमत-परारथ-हि। पुनि प्रकरन भंग प्रसिद्ध-हत, छंद सबाक्य दूषन तजहि ॥ वि०-“दासजी ने इस छप्पय-द्वारा शन्द-दोषों के बाद "वाक्य दोषो" का कथन किया है। श्राप कृत वाक्य-दोष इस प्रकार है-"प्रतिकूलाक्षर, हत- वृत्त, विसंधि, न्यून-पद, अधिक-पद, कथित-पद, पत प्रकर्ष, समाप्त-पुनराप्त, चर- णांतगत, अभवन्मत्त संबंध, अकथ-कथनीय, अत्यानस्थ-पद, संकीर्ण, गर्भित, अमतपरार्थता (अमतपरार्थ-पद ), प्रकरण-भंग, प्रसिद्ध-हत-आदि। दासजी मान्य यह संख्या १७ सत्रह है । संस्कृत-रोति-शास्त्रों में इनकी संख्या २१ इक्कीस है । वहाँ, 'अाहत विसर्ग', 'लुप्तविसर्ग' जो ब्रजभाषा-काव्य में प्रयुक्त नहीं हो सकते के अतिरिक्त अर्थातरैकवाचकत्व (छंदगत-पूर्वाई के कुछ वाक्य उत्तरार्ध में हो), अनभिहितवाच्य (श्रावश्यक वर्णन का न कहा जाना ), अस्थानस्थ-समास, जो अस्थानस्थ-पद का दूसरा भेद है और जिसे "अस्थान-समास" भी कहते हैं, के पा०-१. (का०) (३०). हत वृत्तनि संध्यनि । (प्र०) हत वृत्तानि सध्यनि । २. (का०) (३०)(०) पुनित "I(सं० पु०प्र०) तजि समास पुनराप्त". (सं०-' पु० प्र०) पद प्रस्थानग्य....(का)( )(प्र०) प्रकरम"।