पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६८

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३३ काव्य-निर्णय अथ विजक ( व्यंजक ) बरनन 'दोहा' जथा- होत अरथ बिजकन कौ,' दस बिधि सुभ्र बिसेखि । पैहलें, व्यक्ति, बिसेस पुनि,' हे बोधब्य सु लेखि ॥. काकु-बिसेखौ बाक्य अरु,' बाच्य बिसेख गँनाइ । अनसंनिधि' प्रस्ताब पुनि देस, काल नव' भाइut है चेष्टा सु बिसेख पुनि, दसँम-भेद कबिराइ । इनके मिलै-मिलै करि, भेद अनंत लखाइ । वि०-"जैसा पूर्व में कहा गया है कि "अपने-अपने अर्थ का बोध कराकर जब अभिधा और लक्षणा विरत (शांत) हो जाती हैं तब जिस शक्ति के द्वारा व्यंग्यार्थ का बोध होता है उसे व्यंजना कहते हैं, क्योंकि 'व्यंजना' का शब्दार्थ है- "विशेष प्रकार का अंजन ।" असाधारण अंजन जिस प्रकार दृष्टि-मलिनता को दूर कर अप्रकट वस्तु को भी प्रकट करा देता है, उसी प्रकार यह व्यंजना अविद्या तथा लक्षणा से अप्रकट अर्थ को प्रकट करती है। व्यंजना से जाने हुए, अर्थ को 'व्यंग्या', 'सूचया', 'आक्षेपार्थ' और 'प्रतीपमान' रूप में चार प्रकार का कहते हैं। अभिधा और लक्षणा का व्यापार (क्रिया) केवल शब्दों में होता है, पर व्यंजना का व्यापार शब्द और अर्थ दोनों में । इस लिये इसके- शाब्दी और प्रार्थी दो रूपों में भेद किये गये हैं। व्यंजना-प्राचार्यों ने प्रथम श्रार्थी व्यंजना के दश भेद माने हैं, जैसे- "वक्ता की दशा से, बोधव्य की दशा से, "वाक्य से, वाच्य से, काकु से," अन्य सानिध्य से,१५ प्रस्ताव विशेष से, "देश विशेष से, काल विशेष से और चेष्टा विशेष से। " पा०-१. (प्र०) अर्थ व्यंजकन्ह को। (का० प्र०) पंजन हुँ को,...। २. (का० प्र०) बकता गॅनिऐं प्रयम पुनि...। ३. (का० प्र०) पुनि। ४. (का० प्र०) अन्य संनिध...! ५. (३०) अरु | ६ (प्र०) (३०) नौ०."१७ ( का० प्र०) दरसाइ । . (प्र.)... बिसेख-~। ६. (प्र.) (३०) किट। (का० प्र०) उनहिं भिलाइ-मिलाइकै...। १०. वक्तृवैशिष्टय । ११. बोधन्यवैशिष्टय । १२. वाक्यवैशिष्टय । १३ वाच्य-वैशिष्टय । १४. काकु- वैशिष्टय । १५. अन्यसान्निध्यवैशिष्टय । १६. प्रस्ताबवैशिष्टय । १७. देशवैशिष्टय । १८. चेष्टावैशिष्टय ।

  • का०प्र० (भानु ) पृ० ७८ I का० प्र० (भानु) पृ० ७ । का० प्र० (भानु)

पृ.७५।