पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६८२

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काव्य-निर्णय ६४७ अस्य तिलक इहाँ "निरखितें'(निरखकर, देखकर) के स्थान वै "सिखावती" शिक्षा- देती, ऐसौ पाठ होंनों चहिऐ, पै ऐसौ न करिबे ते बै दोष भयो । अथ चरनांत-दोष-लच्छन-उदाहरन जथा- "चरनांतर-गत' एक पद, द्वै चरनन के माँझ । "गैयँन लोन काँन्ह' में, काँन्हें देख्यौ सॉम ॥" अस्य तिलक इहाँ कॉन्ह सब्द है चरनन में है बार भायौ, सो अनुचित है। इहाँ या प्रकार कहिनों हो कै-"कान्हें देख्यौ भाज में, गैयन लीने साँझ"। सो न कहि उपर लिखी भाँति कहिवे ते मै दोष भयो। वि.-"इस दोहे के उदाहरणरूप अर्ध-भाग के पाठ में बड़ा गड़बड़ है, सभी हस्तलिखित तथा मुद्रित प्रतियों में इसका पाठ-"गैयँन लीने श्राज में, कांहें देख्यौ साँझ"-माना गया है। पर यह पाठ "चरणांतर्गत" दोष के लक्षण से नहीं मिलता। वहाँ स्पष्ट लिखा है कि "जहां एक पद दो चरण के मध्य आये तब 'चरनांत' या चरणांतर्गत दोष होगा। इस लक्षणानुसार विविध प्रतियों में अपनाया गया पाठ उससे पृथक् पड़ता था। अस्तु, बहुत कुछ खोजने के बाद "प्रतापगढ़" (अवध ) से लीयो टायप में प्रकाशित उक्त पाठ जो मूल में दिया गया है, मिला और उसे-ही लक्षणानुसार समुचित समझ कर उल्लेख किया गया है। दासजी कृत उक्त वाक्य-दोष एक प्रकार से संस्कृत जन्य "अर्थातर कवाचक" (छंद-गत पूर्वाद्ध के कुछ वाक्य का भाग उसके उत्तरार्ध में श्राना) का रूपांतर ज्ञात होता है, अन्य कुछ नहीं, किंतु इसका उदाहरण जो वहां दिया गया है उसका दासजी कृत उक्त उदाहरण से मेल नहीं खाता-पूर्व वर्णित “समाप्त- पुनराप्त के उदाहरण से उसका पूर्ण संबंध है, यथा- "मसणवरणपोतं गम्यतां भूः सदा विरचय सिचयांतं मूनिधर्मः कठोरः। तदिति जनकपुत्री लोचनैरव पूर्णैः पथि पथिकबधूभिर्वाचिता शिक्षिता च ॥" -का०प्र० ७, २२६ भूमि पर (तनिक) धीरे-धीरे देखभाल कर पांव रखें, क्योंकि वह कुशों से भरी पड़ी है ( उससे ठोकर न लग जाय), धूप भी कड़ी है, इसलिये साड़ी का पा०-१. (का०) (२०) (३०) भाज में...।