पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६८४

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काव्य-निर्णय '६४३ अस्य तिलक इहाँ मान-छौदियौ तौ कहयो, पै पाइ-जागिबौ नहीं, ताते थे दोष । पुनः उदाहरन तैन' पर सोहत पीत-पट, चंदँन को रँग भाल । पान-लोक मधरन लगी, लई नई छबि लाल ।। अस्य तिलक इहाँ नई छवि तौ कहयौ पै पीत-पट के स्थान पै नील-पट, चंदन के स्थान पैजाबक, पाँन के स्थान पै स्याम न कयौ, ताते उक्त दोष भयो । अथ अस्यानस्थपद दोष लच्छन-उदाहरन जथा- सो है 'प्रस्थानस्थ-पद', जंह चहिऐं तहँ नाँहिं। "हैं वै कुटिल गड़ी अजों, अलकें मो मॅन-माँ हिं॥" अस्य तिलक इहाँ कुटिल-पद, मलक के डिंग-पास कहिनों उचित हो, सो न कहयौ, ताते भस्थानस्थ दोष है। अथ संकीरैन-बाक्य-दोष लच्छन-उदाहरन जथा- दूरि-दूरि ज्यों-त्यों मिले 'संकीरन-पद जाँन । "तजि पीतँम पाँइन परयौ, अजहूँ लखि तिय-मान॥" अस्य तिलक इहाँ “पीतम पाइन-परयौ तजि, तिय-माँन अजहूँ लखात है", अथवा- "पीतम-पाँइन परयौ लखि के तिष-मौन अजहूँ न तज्यो" ए अर्थ बनत है, पैइहाँ पाठ या प्रकार होंनों चहिऐ कै--लखि पीतम-पाँइन परयौ, अज-है जि तिय-मान।" अर्थात् सखी-वचन नायिका प्रति--पियतम कों पाईन परयौ बखि के हूँ तेरौ मान अबतक न गयो” । ऐसौ न होइवे ते 'संकीरन'-दोष बन्यों । अथ गरभित-पद-दोष लच्छन जथा- "और बाक्य दै बीच जो बाक्य रचै कबि कोई। 'गरभित' दून कहत है, ताहिं सयाँ ने लोह॥ पा०-१. (प्र०) (३०) ( स० पु०प्र०) सिर पर सोहै...। २. (२०) (प्र०) (सं० पु० प्र०) पान-पीक अवरन लसै नई लई"।(रा० पु० प्र०) पीक-लोक अपरन लसत"1. (का) (२०) (प्र०) पों। ४. (का०) (३०)"को । (सं० पु० प्र०) प्रवर वाक्य वै बीच ज्यो।