पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय ५१ अथ तृतीय प्रकरन-भंग लच्छन-उदाहरन जथा- सोऊ 'प्रकरन-भंग' है', नाहिं एक सॅम बेन । "तु हरि की अँखियँन बसी, कान्ह बसे तो नेन ॥" अस्य तिलक इहाँ "कान्ह-नेन में तू बसी" ऐसौ कहियो उचित हो, सो न करो, ताते ये तीसरी प्रकरन-भंग दोष भयो। अथ प्रसिद्ध-हत दोष-लच्छन-उदाहरन जथा- 'परसिधहत' परसिद्ध-मत, तजै एक फल लेखि । "कूजि उठे गोकरभ सब, जसुमति-साबक देखि ॥" ___अस्य तिलक इहाँ जिबो (कुजनों-मधुर ध्वनि करना) पंछिन को, करभ-हाथी के बच्चा श्री सावक हिरन के बच्चा के अर्थ में प्रसिद्ध है, गाय के बच्चा (बछड़ा) को कूजिबौ, मनुष्य (जसुमति-सावक ) बालक कों देखि नाही, यै बिपरीत बरन है, ताते 'प्रसिद्ध-हत' (प्रयोग-विरुद्ध वा विरुद्ध -प्रयोग) दोष है। "इति वाक्य-दोष" अथ अर्थ दोष-बरनन जथ- अपुष्टार्थ, कष्टार्थ, ब्याहरत', पुनरुतो जित । दुम, प्राम्य, संदिग्ध, अपर निरहेत नवीकृत ॥ नियम, अनियम, प्रवृत्त', बिसेस, समान प्रवृत्ति कहि । साकांच्छा, पद भजुक्त, सबिधि, अँनबाद-अजुकहि ॥ जो बिरुध प्रसिद्ध प्रकासतँन', सैहचर-भिन्न असलील-धुनि । है त्यक्त पुनः स्वीकृत-सहित, अर्थ-दोष “बाईस" पुनि ॥ वि०-"दासजी ने इस छप्पय-द्वारा "बाईस" (२२) अर्थ-दोषों का उनके नामों के साथ कथन किया है । आपको यह नामावली इस प्रकार है--"पुष्टार्थ, कष्टार्थ, व्याहृत, पुनरुक्त, दुष्क्रम, ग्राम्यार्थ, संदिग्धार्थ, निहें तुक, अनवीकृत, पा०-१.(का०)(३०) (प्र०) (सं०पु०प्र०) जहँ. नहीं"। २. (का०) (३०) (प्र०) तुव"। ३. (का०) (३०) हत जु प्रसिद्ध"। ४. (का०) (३०) (प्र०) ग्याहतो."। ५. (का०)(३०) जु नीर हतो"। (३०) "नीर तो अनवीकृत । ६. (३०)"जु वृत्त । ७. (का०) (३०).. प्रकास तनि, सहचर भिन्नो स्लील ध्वनि । 4. (का०) (३०) तिक्त । ६. (का०)(३०) असमर्थहि से त्यास पुनि ।