पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६९१

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६५६ काव्य-निर्णय अस्य उदाहरन जथा- कोंन अचंभो, जो पाबक जार, मौ' कोंन अचंभो गरू गिरि भाई। कोन अचंभो, खराई पयोनिधि', कोन अचंभौ गयंद कराई ।। कोंन अचंभौ, सुधा मधुराई, औ कोंन अचंभौ विषै कराई। कोंन अचंभी, बहै वृष भार, तौ कोन अचंभौ भले-ई भलाई ।। ____ अस्य तिलक इहाँ ये छंद पा प्रकार होनों चहिऐं, जथा- "कोंन अचंभौ जो पावक जारै, गरू गिरि है तो कहा अधिकाई । सिंध-तरंग सदैव खराई, नई नहिं सिंधुर-अंग कराई ॥ मीठी पियूष, करू बिष-रीति, पै 'दास जू' या में न निंद-बड़ाई। मार चनाब" ही आपु-हि बैल, भलेन के अंग सुमाव भलाई ॥" वि०-"दासजी कृत "अँनुविक्रत" शुद्ध-'अनवीकृत' दोष वहाँ होता है, जहाँ-अनेक अर्थों को एक-ही प्रकार से कहा जाय-उनमें कोई अन्य विल- क्षणता का प्रदर्शित न होना, जाना जाता है। प्रस्तुत उदाहरण में "कोन अचंभौ" शब्द-समूह अर्थ में कोई विशेष विलक्षणता प्रदर्शित नहीं करता, इसलिये उपयुक्त दोष है, पर यही छंद "तिलक-रूप" में पढ़ने-से (उसमें) विल- क्षणता आ जाती है-सु सुदरता बढ़ जाती है, अतः उक्त दोष भी नहीं रहता। ____ एक बात और, इस अनवीकृत दोष में पर्यायवाची शब्द के बदल देने पर मी, यह दोष बना रहता है, पर पूर्व कथित-पद दोष में छंद-प्रयुक्त शब्दों के पर्यायवाची शब्दों के बदल देने से यह दोष नहीं रहता । यही इन दोनों का मेद है-विच्छेद है।" अथ नियम-अनिमय प्रवृत्त को लच्छन- मनियम-थल नेमें गहे, नियम-ठौर जु भनेम । 'नियम-मनियम-प्रवृत्त है, दूषन दुनो अम॥ पा०-१. (का०)() (प्र०) तो...। २. (१०) पयोधि की।. (का०) (०)(०) दिली10.(०) (३०) (प्र०) श्री"५. (40) (स. Ya Roma- हिमा कोन, मोनिको . (N०) (३०) (प्र०) समा