पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६९६

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काव्य-निणय ६६१ अथ प्रसिद्ध विद्या-विरुद्ध दोष लच्छन जथा- लोक, बेद, कवि-रीति औ देस, काल ते भिन्न । सो 'प्रसिद्ध-बिद्याँन' के, हैं बिरुद्ध-मति खिन्न । अस्य उदाहरन कौल खुले कच गूंदती-मूंदती, चारु नखच्छत अंगद के वरु । दोहद में रति के स्लम-भार, बड़े बल के धरती पग भू धरु ।। पंथ असोकॅन कोप लगावती, है जस गावती सिंजित के भरु । भाँवती भादों की चाँदनी में, जगि भाँवते-सग चली अपनै घरु॥ अस्य तिलक या छंद में-उदाहरन में, असोक (वृच्छ) को नायिका (बी) के पाँइ कों छिये ते फूलिब कहिनों लोक-रीति है, पै ऐसौ न कहि 'पल्लब लाग्यौ कहत है, सो लोक-विरुद्ध है। दोहद (गर्भवाली स्त्री) में रति बरजित है सो कह्यौ, ताते बेद-बिरुद्ध है। भादों की चाँदनी-राति बरनियौ-कबि-रीति के विरुद्ध है, भोर न होन पायौ पै भाँवते के पास ते अपने घर चली, यै रस-काल विरुद्ध है और नखच्छत उरोजन पै उचित है, पै भुजॉन में कह्यौ यै भंग-देस बिरुद्ध है। वि०-"दासजी ने यहाँ "प्रसिद्ध-विद्या-विरुद्ध" के अंतर्गत-लोक, वेद, कवि-रीति, देश और काल-विरुद्ध-रूप भेदाभेद दोष कहा, उदाहरण भी दिया है । संस्कृत-साहित्य में-पंथ विरुद्ध, शब्द-विरुद्ध, छंद-विरुद्ध, श्रागम-विरुद्ध और न्याय-विरुद्ध" भी "प्रसिद्ध-विरुद्ध दोष के अंतर्गत माने हैं। पंथ-विरुद्ध, कवि- रीति-विरुद्ध का ही दूसरा नाम है। शब्द से कथन के विपरीत अर्थ का बोध होना, वह शब्द-विरुद्ध है । इसे 'शब्द-बधिर' भी कहते हैं। छंद-नियम के विरुद्ध रचना करना, छंद-विरुद्ध है । श्रागम-विरुद्ध उसे कहते हैं, जहाँ शास्त्रीय- रीति त्याग कर, अपनी मनगढंत रीति चले और न्याय-विरुद्ध दोष वहाँ होता है, जहाँ नीति-युक्त बात न कह, अनीति पूर्ण बात कही जाय ।" अथ प्रकासित विरुद्ध दोष लच्छन- जो लच्छन कहिऐ, पर तासु विरुद्ध लखाइ। वहे 'प्रकासित बात को, बिरुद्ध कबिराइ।। पा०-१. (स० पु० प्र०) के...। २. (३०) दोहर-फेरति के"। ३. (का०) (०) (प्र०) बगी।