पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/७००

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अथ कोंबीसवाँ उल्लास अथ दोषोद्धार बरनन जथा- कहुँ सब्दालंकार, कहुँ छंद, कहूँ तुक-हेत । कहुँ प्रकरैन-बस-दोष-हू, गनें अदोष सचेत ॥ कहूँ अदोषौ होत, कहुँ दोष होत गुन-खाँन । उदाहरन कछु-कछु कहों, सरल सुमति-ढिंग' जॉन ।। वि.-"दासजी ने इस उल्लास में काव्य-गत दोषों के उद्धार का उनके गुण-बन जाने का वर्णन किया है । यह प्रकरण भी श्रापका "जननीजन्मभूमिश्च स्वर्गादपिगरीयशी"-सम संस्कृत-साहित्य की ही देन है-उसी का रूपांतर है। वहाँ, अनेक प्रकार के दोषोद्धार स-उदाहरण सुंदर ढंग से कहे गये हैं। उनका श्रादि काव्य-प्रकाशकार प्राचार्य मम्मट ने-"इदानींक्वचिददोषा अप्येते- इत्युच्यते" ( कहे गये दोष कहीं-कहीं दोप नहीं माने जाते-७,८३) से लेकर "गुणः कृतात्मसंस्कारः प्रधानं प्रतिपद्यते" (७, ३४१) तक विविध प्रकार से वर्णन किया गया है। साहित्य-दर्पण में भी "काव्य-गत अनेक प्रकार के दोषों का, उनके भूषण बन जाने का विशद् विवेचन किया गया है। वहाँ भी "वक्तरि क्रोध संयुक्त तथा वाच्ये समुद्धते" (७, १६) से लेकर- __ "अन्येषामपि दोषाणामित्यौचित्यान्मनीषिभिः । प्रदोषता च गुणता ज्ञेया चानुभयात्मता ॥" अर्थात् “इसी प्रकार औचित्य के अनुसार दोषों के अदोषत्व, गुणव और श्रदोष-गुणत्व का निर्णय बुद्धिवान् स्वयं विचार करें"-तक कथन किया है। तात्पर्य यह कि पूर्व और उत्तर में कथित-"शब्द, वाक्य, अर्थ और रस-गत" दोष भी अनुकूल अवसर से, रसोत्कर्ष में सहायक हो जाने से गुण-संज्ञा पा भूषण बन जाते हैं। श्रतएव यह दोष-संजा, गुण-संशा बन जाने के कारण- नाम-करण के साथ प्रथक् वर्णन नहीं की गयो है । दोषों की गुणत्व रूप में नामकरण-व्यवस्था विस्तार-भय का कारण भी हो सकती है। दोषोद्धार को सफल बकालत "काव्यालंकारकार श्राचार्य भामह और रुद्रट के साथ काव्यादर्श के कर्ता-दंडी ने भी की है। आपलोग कहते हैं-"विशेष- पा०-१. (प्र०) द...। (Hoपु०म०) मति"।