पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/७०२

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काव्य-निर्णय

काव्य-निर्णय कुंडन मकरबारे सों लागी है लगन भव, बारहों लगँन को बनाब बन्यों नीक है।।* अस्य तिलक इहाँ 'मेखला' सन्द में 'ला' सब्द निररथक है, है पदारयन के बीच मिथुन सब्द अप्रजुक्त (अप्रयुक्त) है । अलि सब्द 'निहितार्थक' है, र्धेनु-लोक सन्द भवाचक है, कन्या सब्द सिंगार-रस में अनुचितार्थ है, गल-ग्रह मिलबे को कहिनों भमतीत दोष है, कुंडल औ मकर सब्द अविम्रिष्ट विधेहक हैं, बारहों सब्द स ति- कटु है-बकार की संधि ते । पैहले बिलगाइबे की बात कहि, पीछे, मिलबे को कहिनों-स्यक्तपुनःस्वीकृत अर्थ दोप है, रति कों रतीक कहि के राधा कों गरू (भारी) न कहयौ ताते साकांच्छा दोष है, पै स्लेष भौ मुद्रालंकार करि के बारहों रासिन के नाम माने, ताते भदुष्ट है। जैसे मेंढक कों-मेंदुला, मेंदुका कहें हैं, तैसें-ही मेष को मेखला कहयो, ताते निरर्थक-दोष हू को निबारन भयौ है। वि.-"दासजी ने इस छंद में बारहों राशियों का नामोल्लेख किया है और कहा है कि ये राशि-नामावली श्लेष और मुद्रालंकारों से सुशोभित होने के कारण छंद को अदोषयुक्त बनाती हैं । हम यहाँ श्लेष की बात नहीं कहते, क्योंकि उसका अधिकार बड़ा व्यापक है, वह शब्द-गत विविध नई खूबियाँ प्रकाशित करने में सबसे अधिक है और जब कहीं यह मुद्रा (अलंकार ) की सान पर चढ़ जाय तो फिर कहना ही क्या....। अतएव श्लेष और मुद्रा से विभूषित इन बारहों राशियों की शोभा दासजी के शब्दों में निरखिये-परखिये, जैसे-प्रथम "सिंघ" (सिंघ-कटि) मेष (मेखला), मिथुन कुम (दो कुच-कुभ), धनु (फँनु-लीक), बृष (वपान), कन्या, मीन (मीन-नेंनी), तुला (नजरि-तुला), करक (कर्क-कटाच्छैन), मकर (कुंडल मकरवारे) इत्यादि..." अथ क्वचित असलील प्रदोष गुन-कथन जथा- कहुँ 'मसलील' दूषन' नहीं, जथा सुभग भगवंत । कहूँ हास-निंदादि वे, स्लील [ने गुनबंत ॥ पा०-१. (का०) (२०) (प्र०) (सं० पु० प्र०) लगी लगन २. (का०) (वे. ) (५०) ठीक है । ३. (३०) दोषे "I४ (का० ) (20) गुनसत। : • रस सारांस (भि० दा०) १०-१४,२५६ । .. १ ५ .. .. .