पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/७०९

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६७४ काव्य-निर्णय अर्थात्, शृंगारादि रसों का विशेष शब्दों-द्वारा, या उनका सामान्य शन्दों. द्वारा स्पष्ट कथन अनुचित है।" संस्कृत साहित्याचार्यों-द्वारा इन रस-दोषों का वर्गीकरण "नित्य" और "अनित्य" रूप से किया हुआ मिलता है। जो दोष सभी अवस्थाओं में काव्यात्मा का अपकार करते हैं वे-"नित्य" और जिनका संबंध रूपाकार से है वे "अनित्य" कहे गये हैं तथा जो सर्वत्र रसोचित्य को हानि नहीं करते वे शब्दार्थ- दोष है-रस-दोष नहीं। रस-दोष नित्य हैं--अनित्य नहीं, ऐसा भी शास्त्रा- चार्यों का अभिमत है। ____ जैसा कि पूर्व (२३वें उल्लास के श्रादि ) में कह श्राये हैं कि "इदानीं क्वचिददोषा अप्येते इत्युच्यते" अर्थात् कहीं-कहीं शब्द, वाक्य, अर्थ-दोष, दोष नहीं माने जाते, उसी प्रकार 'रस-दोष' भी श्राचार्य मम्मटादि-संमति से ( रस- दोष ) दोष नहीं माने जाते, यथा- "न दोषः स्वपदेनोक्तावपि संचारिणः क्वचित् ।" -का०प्र०७,८३ यही नहीं, श्रागे श्राप फिर कहते हैं- "संचार्यादेविरुद्धस्य बाध्यस्योक्तिगुणावहा।" -का०प्र०७,८४ अर्थात् , संचारीभावादि के विरुद्ध रसों की उक्ति यदि वाध्यता की रीति से कही जाय तो वह गुण-जनक होती है, दोषावह नहीं। श्रीविश्वनाथ चक्र वर्ती ने अपने साहित्य-दर्पण मथ में मम्मट-मान्य तेरह दोषों का वर्णन कुछ नवीनता के साथ किया है, यथा- रसस्योक्तिः स्वशब्देन स्थायिसंचारिणोरपि ॥ परिपंथि रसांगस्य विभावादेः परिग्रह । भावपः कल्पितः कृच्छादनुभावविभावयोः ॥ प्रकांडे प्रथनच्छेदी तथा दीप्तिः पुनः पुनः । भंगिनोऽननसंधानमनंगस्य च कीर्तनम् ॥ अतिविस्तृतिरंगस्य प्रकृतीनां विपर्ययः । मानौचित्पमन्यच्च दोषा रसगता मताः॥ -७, १२, १३, १४, १५ - "अर्थात्, किसी रस का उसके वाचक-पद से-सामान्य वाचक रस शन्द से या विशेष वाचक श्रृंगारादि शन्दों से कहना, स्थायी और संचारी भावों का उनके वाचक पदों से अभिधान करना, विरोधी रस के अंग-भूत विभावानुभावादिः।