पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/७१०

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काव्य-निर्णय ६७५ का वर्णन करना, विभावानुभावों का कठिनता से श्राक्षेप हो सकना, रस का अनुचित स्थान में विस्तार या विच्छेद करना, बार-बार उसे दीप्ति करना, प्रधान रस को भुलाकर अन्य का वर्णन करना, जो अंगी नहीं है उसका वर्णन करना, अंगभूत रस को अति विस्तृत करना, अर्थादि के औचित्य को भंग करना और प्रकृतियों का उलटना-पलटना ये रस-दोष हैं। दासजीने इन्ही संस्कृत-जन्य ग्स-दोषों का वर्णन कुछ निराले ढंग से उनकी निर्दोषता के साथ न्यूनाधिक रूप में किया है। ब्रज-भाषा-रीति-साहित्य में भी दोषों का वर्णन है, जैसा पूर्व में कह पाये हैं । अस्तु, जहाँ प्राचार्य केशव ने अन्य -शब्द-वाक्य-अर्थादि दोषों का नये नाम करणों-द्वारा, जैसे--अंध, बधिर, पंगु, नग्न, मृतक, गन-अगन, हीन-रस, यति-भंग, व्यर्थ, अपार्थ, क्रमहीन, कर्णकटु, पुनरुक्ति, देश-विरोध, काल-विरोध, लोक-विरोध, नीति-विरोध, अागम-विरोध श्रादि अपनी "कवि-प्रिया" में किया है, उसी प्रकार "रसिक-प्रिया” में भी रस-दोषों का भी वर्णन करते हुए उन्हें "श्रनरस' की संज्ञा दी है । श्राप कृत रस-दोष इस प्रकार हैं- "प्रत्यनीक, नीरस, बिरस, केसब दुःसंधान । पात्र-दुष्ट, कवित्त बहुँ, करें न सुकवि बखाँन ॥ अस्तु, उपर्युक्त रस-दोषों का विवरण जहां आपकी नवीनता का उद्भावक है, वहाँ वह संस्कृत-जैसा वैज्ञानिक नहीं हैं। प्रत्यनीक-विरसादि विरोधी भावों के आधारों पर-ही अवलंबित हैं, उनसे पृथक् नहीं। आप के बाद श्राचार्य चिंता- मणि ने “कविकुल-कल्पतरु" में संस्कृत के अनुकूल तज्जन्यनामानुसार रस-दोषों का वर्णन किया है । यह चिंतामणि-चर्चित परंपरा कवि-प्रवृत्तियों के अनुसार डगमगाते हुए आगे बढ़ी तो सही, पर उसमें वह बाँकपन न रहा जो उसमें होना चाहिये था, इति अलं ।" अथ प्रथम प्रत्यच्छ रस-कथन दोष उदाहरन जथा- अंचल-ऐंचि जु सिर-धरत, चंचजनेनी चारु। कुच-कोरॅन हिय-कोरि के, भरथौ सरस' सिंगार ॥ अस्य तिलक यहाँ सिंगार-रस बरमॅन करत सिंगर-रस को नाम, जैसे- "सरस सिंगार" मैनों अनुचित है-रस दोष है, वाके अनुभव सों इहाँ यो कहिनों उचिंत हो- पा०-१. (का०) (३०)(प्र०) मुरस...।