पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३७ काव्य-निर्णय "होनहार पिप के विरह, विफल होइ जो बाल । ताहि 'प्रबछरप्रेयसी', बरनत बुद्धि-विसाल ॥" -२० रा. ( मतिराम) अथवा- "प्रबछतपतिका सोइ, चलॅन चहत परदेस पिय । भति-ही बिकल हिय होइ, भोर-हिं ते पिय-गमन लखि ॥" अस्तु, अवस्थानुसार कवियों ने प्रवत्स्यत्पतिका को-मुग्धा, मध्या, प्रौढ़ा, परकीया और सामाग्या में भी माना है, तथा बड़े-बड़े सुंदर उदाहरण दिये हैं । दो उदाहरण जैसे-मुग्धा-प्रवत्स्यन्पतिका-- "उर गई बात, पिय-पर-पुर जाइबे की, मुर गई, जुर गई, बिरहागि पुर गई। घुर गई ही जो खेल उमँग सों दुरि गई, फुर गई पीर, मुख-दुति है अउर गई॥ 'ग्वाल कवि' अलि सों बिछुर गई, लुर गई, ___नार-हूँ निहुर गई, नैन सों निचुर गई। दुर गई कोठरी में, मुर गई सासें तक, जुर गई लाज, लाजवंती-सी सिकुर गई ॥" प्रौढा-'प्रवत्स्यत्पतिका', यथा- “जौ पै कहों 'रहिए तो प्रभुता प्रघट होति, 'चलॅन' कहों तौ हित-हाँनि नाहिं सहने । 'भावै जो करो' तो उदास-भाव प्रॉन-नाथ, 'साथ-ही चलों तौ कैसे लोक-लाज बहने ।। सोह है तिहारी नेकु सुनों अहो प्रौन-प्यारे, चलें-ई बनत तौ पै नाही लाज रहने । जैसें- सिखावौ सीख, तुम हो सुजॉन पिय, तुम्हरे पलत जैसी-जैसी मोहि कहने ॥ -- (मन्नालाल) अथवा- "पीतम इक सुमरँनियाँ मोहिदै जाह। जिहिं अपि तोर-बिरहवा, करव निवाहु ॥" -२०२० ( मयाशंकर)