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जब काव्यमय श्रुतियों का काल समाप्त हो गया और धर्म ने अपना स्वरूप अर्थात् शास्त्र और स्मृति बनाने का उपक्रम किया―जो केवल तर्क पर प्रतिष्ठित था―तब मनु को भी कहना पड़ा:―

यस्तर्केणानुसन्धत्तेसधर्मंवेदनेतरः।

परन्तु आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति, जो मानव-ज्ञान की अकृत्रिम धारा थी, प्रवाहित रही। काव्य की धारा लोकपक्ष से मिल कर अपनी आनन्द-साधना में लगी रही। यद्यपि शास्त्रों की परम्परा ने आध्यात्मिक विचार का महत्त्व उस से छीन लेने का प्रयत्न किया, फिर भी अपने निषेधों की भयानकता के कारण, हृदय के समीप न हो कर वह अपने शासन का रूप ही प्रकट कर सकी। अनुभूतियाँ काव्य-परम्परा में अभिव्यक्त होती रहीं। जग्राह पाठ्यम् ऋग्वेदात् (भरत) से यह स्पष्ट होता है कि सर्वसाधारण के लिए वेदों के आधार पर काव्यों का पंचम वेद की तरह प्रचार हुआ। भारतीय वाङ्‌मय में नाटकों को ही सब से पहले काव्य कहा गया।

काव्यंतावन्मुख्यतो दशरूपात्मकमेव (अभिनवगुप्त)

शैवागमों के क्रीड़ात्वेनखिलम् जगत् वाले सिद्धान्त का नाट्य-शास्त्र में व्यावहारिक प्रयोग है।

इन्हीं नाट्योपयोगी काव्यों में आत्मा की अनुभूति रस के

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