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रूप में प्रतिष्ठित हुई। अभिनवगुप्त ने कहा है आस्वादनात्माऽनुभवो रसः काव्यार्थं मुच्यते। नाटकों में भरत के मत से चार ही मूल रस हैं―शृंगार, रौद्र, वीर और वीभत्स। इन से अन्य चार रसों की उत्पत्ति मानी गयी। शृंगार से हास्य, वीर से अद्भुत, रौद्र से करुण और वीभत्स से भयानक। इन चित्तवृत्तियों में आत्मानुभूति का विलास आरम्भिक विवेचकों का रमणीय और उत्कर्षमय मालूम हुआ। नाट्यों में वाणी के छन्द, गद्य और संगीत, इन तीनों प्रकारों का समावेश था। इस तरह आभ्यन्तर और वाह्य दोनों में नाट्य संघटना पूर्ण हुई। रसात्मक अनुभूति आनन्द मात्रा से सम्पन्न थी और तब नाटकों में रस का आवश्यक प्रयोग माना गया। किन्तु रस सम्बन्धी भरत मुनि के सूत्र ने भावी आलोचकों के लिए अद्भुत सामग्री उपस्थित की। विभावानुभावव्यभिचारिसंगाद्रसनिष्पत्तिः की विभिन्न व्याख्याएँ होने लगीं। स्वयं भरत ने लिखा है तथा विभावानुभाव व्यभिचारि-परिवृतः स्थायीभावो रसनाम लभते (नाट्यशास्त्र अ॰ ७) अर्थात् प्रमुख स्थायी मनोवृत्तियाँ विभाव, अनुभाव, व्यभिचारियों के संयोग से रसत्व को प्राप्त होती हैं। आनन्द के अनुयायियों ने धार्मिक बुद्धिवादियों से अलग सर्वसाधारण में आनन्द का प्रचार करने के लिए नाट्य-रसों की उद्भावना की थी। हाँ, भारत में नाट्य प्रयोग केवल कुतूहल शान्ति के लिए ही नहीं था। अभिनव भारती में कहा है:―