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तदनेन पारिमार्थिकम् प्रयोजनमुक्तमिति व्याख्यानम् सह्रदय दर्पणे मन्यग्रहीत् यदाह―नमस्त्रैलोक्य निर्माण कवये शंभवे यतः। प्रतिक्षणम् जगन्नाट्य प्रयोग रसिको जनः! इति एवं नाट्यशास्त्र प्रवचन प्रयोजनम्। नाट्य शास्त्र का प्रयोजन नटराज शंकर के जगन्नाटक का अनुकरण करने के लिए पारमार्थिक दृष्टि से किया गया था। स्वयम् भरत मुनि ने भी नाट्य प्रयोग को एक यज्ञ के स्वरूप में ही माना था।

इज्यया चानया नित्यं प्रीयन्तांदेवता इति (४ अध्याय)

इधर विवेक या बुद्धिवादियों की वाङ्‌मयी धारा, दर्शनों और कर्म पद्धतियों तथा धर्म शास्त्रों का प्रचार कर के भी, जनता के समीप न हो रही थी। उन्हों ने पौराणिक कथानकों के द्वारा वर्णनात्मक उपदेश करना आरम्भ किया। उन के लिए भी साहित्यिक व्याख्या की आवश्यकता हुई। उन्हें केवल अपनी अलंकारमयी सूक्तियों पर ही गर्व था; इसलिए प्राचीन रसवाद के विरोध में उन्हों ने अलंकार मत खड़ा किया, जिस में रीति और वक्रोक्ति इत्यादि का भी समावेश था।

इन लोगों के पास रस जैसी कोई आभ्यन्तरिक वस्तु न थी। अपनी साधारण धार्मिक कथाओं में वे काव्य का रंग चढ़ा कर सूक्ति, वाग्विकल्प और वक्रोक्ति के द्वारा जनता को आकृष्ट करने में लगे रहे। शिलालिन्, कृशाश्व और भरत आदि के ग्रंथ अपनी आलोचना और निर्माण शैली की व्याख्या के द्वारा रस के