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आधार थे। अलंकार की आलोचना और विवेचना के लिए भी उसी तरह के प्रयत्न हुए। भामह ने पहले काव्य शरीर का निर्देश किया और अर्थालंकार तथा शब्दालंकार का विवेचन किया। इन के अनुयायी दण्डि ने रीति को प्रधानता दी। सौंदर्य ग्रहण की पद्धति समझने के लिए वाग्विकल्पों के चारुत्व का अनुशीलन होने लगा। अलंकार का महत्व बढ़ा; क्योंकि वे काव्य की शोभा मान लिये गये थे। पिछले काल में तो वे कटक कुण्डल की तरह आभूषण ही समझ लिये गये। काव्यालंकार सूत्रों में ये आलोचक कुछ और गहरे उतरे और उन्हों ने अलंकारों की व्याख्या सौंदर्य-बोध के आधार पर करने का प्रयत्न किया।

काव्यम् ग्राह्यलंकारात्, सौन्दर्यमलंकारः―इत्यादि से सौन्दर्य की प्रतिष्ठा अलंकार में हुई। काव्य के सौन्दर्य-बोध का आधार शब्द-विन्यास-कौशल ही रहा। इसी को वे रीति कहते थे। विशिष्ट पद रचना रीतिः से यह स्पष्ट है। रीति, अलंकार तथा वक्रोक्ति श्रव्य काव्यों के सम्बन्ध में विचार करने वालों के निर्माण थे; इसलिए आरम्भ में इन लोगों ने रस को भी एक तरह का अलंकार ही माना और उसे रसवद् अलंकार कहते थे। अलंकार मत के रीति ग्रन्थों के जितने लेखक हुए उन्हों ने शब्दों को ही प्रधान मान कर अपने काव्य लक्षण बनाये। वाक्यं रसात्मकं काव्यम्, रमणीयार्थं प्रतिपादकं शब्दः काव्यम् इत्यादि।

इन परिभाषाओं में शब्द और वाक्य ही काव्यरूप माने गये