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ही मिला। उन्हों ने रस के सम्बन्ध में ध्वन्यालोक की टीका में लिखा है:―

काव्येऽपि लोकनाट्यधर्मिस्थानीये स्वभावोक्तिवक्रोक्तिप्रकारद्वयेना-लौकिकप्रसन्नमधुरौजस्विशब्द समर्प्यमाण विभावादियोगादियमेव रस वार्ता। अस्तुवानाट्याद्विचित्ररूपारसप्रतीतिः।

रस को अपना कर भी इन बुद्धिवादी तार्किकों ने अपने पाण्डित्य के बल पर उस के सम्बन्ध में नये-नये वाद खड़े किये। रस किसे कहते हैं, उस की व्यापार सीमा कहाँ तक है, वह व्यंग्य है कि वाच्य, इस तरह के बहुत से मतभेद उपस्थित हुए। दार्शनिक युक्तियाँ लगायी गयीं। रस कार्य है कि अनुमेय, भोज्य है कि ज्ञाप्य―इन प्रश्नों पर रस का, काव्य और नाटक दोनों में समन्वय करने की दृष्टि से विचार होने लगा। क्योंकि इस काल में काव्य से स्पष्टतः श्रव्य काव्य का और नाटक से दृश्य का अर्थ किया जाने लगा था। किन्तु सामाजिकों या अभिनेताओं में आस्वाद्य वस्तु रस के लिए भरत की व्यवस्था के अनुसार सात्विक, आङ्गिक, वाचिक और आहार्य्य इन चारों क्रियाओं की आवश्यकता थी। अलंकारवादियों के पास केवल वाचिक का ही ही बल था। फिर तो रस को श्रव्य काव्योपयोगी बनाने के लिए कई उपाय किये गये। उन्हीं में से एक उपाय आक्षेप भी है। आक्षेप के द्वारा विभाव, अनुभाव या संचारी में से एक भी अन्य दोनों को ग्रहण करने में समर्थ हो जाता है। रस के सम्बन्ध में