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विकल्पवादियों के ये आरोपित तर्क थे। आनन्द परम्परावाले शैवागमों की भावना में प्रकृत रस की सृष्टि सजीव थी। रस की अभेद और आनन्दवाली व्याख्या हुई। भट्ट नायक ने साधारणीकरण का सिद्धान्त प्रचारित किया, जिस के द्वारा नट सामाजिक तथा नायक की विशेषता नष्ट हो कर, लोक सामान्य-प्रकाश-आनन्दमय, आत्मचैतन्य की प्रतिष्ठा रस में हुई।

रस और अलङ्कार दोनों सिद्धान्तों में समझौता कराने के लिए ध्वनि की व्याख्या अलङ्कार सरणि व्यवस्थापक आनन्दवर्द्धन ने इस तरह से की कि ध्वनि के भीतर ही रस और अलंकार दोनों आ गये। इन दोनों से भी जो साहित्यिक अभिव्यक्ति बची उसे वस्तु कह कर ध्वनि के अन्तर्गत माना गया। काव्य की आत्मा ध्वनि को मान कर रस, अलंकार और वस्तु इन तीनों को ध्वनि का ही भेद समझने का उपक्रम हुआ। फिर भी आनन्छवर्द्धन ने यह स्वीकार किया कि वस्तु और अलङ्कार से प्रधान रस ध्वनि ही है:―प्रतीयमानस्य चान्यप्रभेददर्शमेपि रसभावमुखेनैवोपलक्षणम्, प्राधन्यात् (आनन्दवर्द्धन) आनन्दवर्धन ने रस ध्वनि को प्रधान माना; परन्तु अभिनवगुप्त ने 'ध्वन्यालोक' की ही टीका में अपनी पाण्डित्यपूर्ण विवेचन शैली से यह सिद्ध किया कि काव्य की आत्मा रस ही है। तेनरसमेव वस्तुत आत्मा वस्तलंकारध्वनिस्तु सर्वथा रसं प्रतिपर्य्यवस्यते (लोचन)

यहाँ पर यह स्मरण रखना होगा कि अलंकार व्यवस्थापक