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अभिनवगुप्त ने रस की व्याख्या में आनन्द सिद्धान्त की अभिनेय काव्य वाली परम्परा का पूर्ण उपयोग किया। शिवसूत्रों में लिखा है―नर्त्तक आत्मा, प्रेक्षकाणि इन्द्रियाणि। इन सूत्रों में अभिनय को दार्शनिक उपमा के रूप में ग्रहण किया गया है। शैवाद्वैतवादियों ने श्रुतियों के आनन्दवाद को नाट्य गोष्ठियों में प्रचलित रक्खा था; इसलिए उन के यहाँ रस का साम्प्रदायिक प्रयोग होता था। विगलित भेद संस्कारमानन्द रसप्रवाह मयमेव पश्यति (क्षेमराज) इस रस का पूर्ण चमत्कार समरसता में होता है। अभिनवगुप्त ने नाट्य रसों की व्याख्या में उसी अभेदमय आनन्द रस को पल्लवित किया। भट्ट नायक ने साधारणीकरण से जिस सिद्धान्त की पुष्टि की थी अभिनवगुप्त ने उसे अधिक स्पष्ट किया। उन्हों ने कहा कि वासनात्मकतया स्थित रति आदि वृत्तियाँ ही साधारणीकरण द्वारा भेद विगलित हो जाने पर आनन्द स्वरूप हो जाती हैं। उन का आस्वाद ब्रह्मास्वाद के तुल्य होता है। परब्रह्मास्वाद सब्रह्मचारित्वम् वास्त्वस्यरसस्य (लोचन) वासनात्मक रूप से स्थित रति अदि वृत्तियों में ब्रह्मास्वाद की कल्पना साहित्य में महान परिवर्त्तन ले कर उपस्थित हुई। रति आदि कई वृत्तियाँ स्थायी मानी जा चुकी थीं; किन्तु आलोचक एक आत्मा की खोज में थे। रस को अपना कर वे कुछ द्विविधा में पड़ गये थे। आनन्दवादियों की यह व्याख्या उन सब शंकाओं का समाधान कर देती थी। उन के यहाँ कहा गया