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है लोकानन्दः समाधि सुखं (शिवसूत्र १८) क्षेमराज उस की टीका में कहते हैं प्रमातृ पद विश्रान्ति अवधानान्तश्चमत्कारमयो य आनन्द एतदेव अस्य समाधि सुखम्। इस प्रमातृ पद विश्रान्ति में जिस चमत्कार या आनन्द को लोकसंस्थ आनन्द के नाम से संकेत किया गया है, वही रस के साधारणीकरण में प्रकाशानन्दमय सम्विद् विश्रान्ति के रूप में नियोजित था। इन आलोचकों का यह सिद्धांत स्थिर हुआ कि चित्तवृत्तियों की आत्मानन्द में तल्लीनता समाधि सुख ही है। साहित्य में भी इस दार्शनिक परिभाषा को मान लेने से चित्त की स्थायी वृत्तियों की बहुसंख्या का कोई विशेष अर्थ नहीं रह गया। सब वृत्तियों का प्रमातृ पद―अहम् में विश्रान्ति होना ही पर्याप्त था। अभिनव के आगमाचार्य गुरु उत्पल ने कहा है कि―

प्रकाशस्यात्मविश्रांति रहं भावी हि कीर्तितः।

प्रकाश का यहाँ तात्पर्य है चैतन्य। यह चेतना जब आत्मा में ही विश्रान्ति पा जाय वही पूर्ण अहंभाव है। साधारणीकरण द्वारा आत्म चैतन्य का रसानुभूति में, पूर्ण अहंपद में विश्रान्ति हो जाना आगमों की ही दार्शनिक सीमा है। साहित्यदर्पणकार की रस व्याख्या में उन्हीं लोगों की शब्दावली भी है―

स्वत्वोद्रेकादखण्डस्व प्रकाशानन्द चिन्मयः। इत्यादि।

यह रस बुद्धिवादियों के पास गया तो धीरे-धीरे स्पष्ट हो गया कि रस के मूल में चैतन्य की भिन्नता को अभेदमय करने का