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नाम मधुर रख लिया। कहना न होगा कि उज्ज्वल नीलमणि का सम्प्रदाय बहुत कुछ विरहोन्मुख ही रहा, और भक्ति प्रधान भी। उन्होंने कहा है―

मुख्यरसेषु पुरायः संक्षेपेनोदितोरहस्यत्वात,
पृथ्‌गेव भक्तिरसराट सविस्तरेणोच्यते मधुरः।

कदाचित् प्राचीन रसवादी रस की पूर्णता भक्ति में इसीलिए नहीं मानते थे कि उस में द्वैत का भाव रहता था। उस में रसाभास की ही कल्पना होती थी। आगमों में तो भक्ति भी अद्वैत मूला थी। उन के यहाँ द्वैत प्रथा तद्ज्ञान तुच्छत्वात् बंध मुच्यते के अनुसार द्वैत बन्धन था। इस मधुर सम्प्रदाय में जिस भक्ति का परिपाक रस के रूप में हुआ उस में परकीया प्रेम का महत्व इसीलिए बढ़ा कि वे लोग दार्शनिक दृष्टि से तत्व को स्व से पर मानते थे। उज्जवलनीलमणिकार का कहना है―

रागेणोल्लंघयन् धर्मम् परकीया बलार्थिना
तदीय प्रेम वसति बुधैरूपपतिस्मृतः
अत्रैव परमोत्कर्षः शृङ्गारस्य प्रतिष्ठितः।

शृंगार का परम उत्कर्ष परकीया में मानने का यही दार्शनिक कारण है जीव और ईश की भिन्नता। हाँ, इस लक्षण में धर्म का उल्लंघन करने का भी संकेत है। विवेकवादी भागवत धर्म ने जब आगमों के अनुकरण में आनन्द की योजना अपने सम्प्रदाय में की तो उस में इस प्रेमा भक्ति के कारण श्रुति परम्परा के धार्मिक