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वीभत्स इत्यादि प्राचीन रस गौण हो गये और दास्य, सख्य और वात्सल्य आदि नये रसों की सृष्टि हुई। माधुर्य के नेतृत्व में द्वैत भावना से परिपुष्ट दास्य आदि रस प्रमुख बने। आनन्द की भावना इन आधुनिक रसों में विशृंखल ही रही। हिन्दी के आरम्भ में श्रव्य काव्यों की प्रचुरता थी। उन में भी रस की धारा अपने मूल उद्‌गम आनन्द से अलग हो कर केवल चिर विरहोन्मुख प्रेम के स्रोत में बही। यह बाढ़ वेगवती रही, किन्तु इस में रस की पूर्णता नहीं। तात्विक और व्यावहारिक दोनों दृष्टि से आत्मा की रस अनुभूति एकाङ्गी-सी बन गयी।

मनोभावों या चित्तवृत्तियों का और उन के सब स्वरूपों का नाट्य रसों में आगमानुकूल व्याख्या से समन्वय हो गया था। अहम् की सब भावों में, सब अनुभूतियों में पूर्णता मान ली गयी थी। वह बात पिछले काल के रस विवेचकों के द्वारा विशृंखल हो गयी। हाँ, इतना हुआ कि सिद्धांत रूप से ध्वनि, रीति, वक्रोक्ति और अलंकार आदि सब मतों पर रस की सत्ता स्थापित हो गयी। वास्तव में भारतीय दर्शन और साहित्य दोनों का समन्वय रस में हुआ था और यह साहित्यिक रस दार्शनिक रहस्यवाद से अनुप्राणित है।

फिर भी रस अपने स्वरूप में नाट्यों की अपनी वस्तु थी। और उसी में आत्मा की मूल अनुभूति पूर्णता को प्राप्त हुई थी। इसीलिए स्वीकार किया गया―काव्येषु नाटकं रम्यम्।