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व्यर्थ है कि शान्तस्य शमसाध्यत्त्वान्नटे चतदसंभवात्, अष्टावेव रसाः नाट्ये न शान्तस्तत्र युज्यते। शम का अभाव नदी में होता है। शान्त का अभिनय असंभव है। नटों में तो किसी भी आस्वाद का अभाव है। इसलिए शान्त रस भी अभिनीत हो सकता है, इस की आवश्यकता नहीं कि नट परम शान्त, संयत हो ही। किन्तु साधारणीकरण में रस और आस्वाद की यह कमी मानी नहीं गयी। क्योंकि भरत ने कहा है कि―

इन्द्रियार्थश्च मनसा भाव्यते ह्यनुभावितः नवेत्तिह्यमनाः किंचिद्विषयं पञ्चगेतुकम् (२४-८२) इन्द्रियों के अर्थ को मन से भावना करनी पड़ती है। अनुभावित होना पड़ता है। क्योंकि अयन्मनस्क होने पर विषयों से उस का सम्बन्ध ही छूट जाता है। फिर तो क्षिप्रं संजातरोमाञ्चा वाष्पेणावृतलोचना, कुर्वीतनर्तकी हर्ष प्रीत्यावाक्यैश्च सस्मितैः (२६-५०) इन रोमाञ्च आदि सात्विक अनुभावों का पूर्ण अभिनय असंभव है। भरत ने तो और भी स्पष्ट कहा है―एवं बुधः परं भावं सोऽस्मीति मनसा स्मरन्।वागङ्गलीलागतिभिश्चेष्ठाभिश्च समाचरेत्। (३५-१५) तब यह मान लेना पड़ेगा कि रसानुभूति केवल सामाजिकों में ही नहीं प्रत्युत नटों में भी है। हाँ, रस विवेचना में भारतीयों ने कवि को भी रस का भागी माना है। अभिनवगुप्त स्पष्ट कहते हैं―कविगत साधारणीभूत संविन्मूलश्च काव्य पुरस्सरो नाट्य व्यापारः सैव च संवित् परमार्थतो रसः (अभिनव भारती ६ अध्याय) कवि में साधारणीभूत जो संवित् है, चैतन्य है, वही