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उन की मनुष्यता की पुकार थी, आजीवन लड़ने के लिए। ग्रीक और रोमन लोगों को बुद्धिवाद भाग्य से, और उस के द्वारा उत्पन्न दुःखपूर्णता से संघर्ष करने के लिए अधिक अग्रसर करता रहा। उन्हें सहायता के लिए संघबद्ध होने पर भी, व्यक्तित्व के, पुरुषार्थ के विकास के लिए, मुक्त अवसर देता रहा। इसलिए उन का बुद्धिवाद, उन की दुःख भावना के द्वारा अनुप्राणित रहा। इसी को साहित्य में उन लोगों ने प्रधानता दी। यह भाग्य या नियति की विजय थी।

परन्तु अपने घर में सुव्यवस्थित रहनेवाले आर्यों के लिए यह आवश्यक न था, यद्यपि उन के एक दल ने संसार में सब से बड़े बुद्धिवाद और दुःख सिद्धान्त का प्रचार किया, जो विशुद्ध दार्शनिक ही रहा। साहित्य में उसे स्वीकार नहीं किया गया। हाँ, यह एक प्रकार का विद्रोह ही माना गया। भारतीय आर्यों को निराशा न थी। करुण रस था, उस में दया, सहानुभूति की कल्पना से अधिक थी रसानुभूति। उन्हों ने प्रत्येक भावना में अभेद, निर्विकार आनन्द लेने में अधिक सुख माना।

आत्मा की अनुभूति व्यक्ति और उस के चरित्र-वैचित्र्य को ले कर ही अपनी सृष्टि करती है। भारतीय दृष्टिकोण रस के लिए इन चरित्र और व्यक्ति वैचित्र्यों को रस का साधन मानता रहा, साध्य नहीं। रस में चमत्कार ले आने के लिए इन को बीच का माध्यम सा ही मानता आया। सामाजिक इतिहास में,