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प्रसादजी की इस दृष्टि के कारण भारतीय इतिहास और दर्शन दोनों ही राष्ट्रीय संस्कृति के अविच्छिन्न अंग बन गए हैं, कहीं भी इनका बिछोह नहीं होने पाया। जहाँ कहीं दार्शनिक विवेचन है वहाँ मानवजीवन और इतिहास की पृष्ठभूमि अवश्य है और जहाँ कहीं किसी राष्ट्रीय मानवीय उद्योग का आकलन है वहाँ भी दर्शन का साथ कभी नहीं छूटा। प्रस्तुत पुस्तक में प्रसाद जी की साहित्यिक समीक्षाओं का संग्रह है। साहित्य भी एक सांस्कृतिक प्रक्रिया ही है। इसलिए हम देखते हैं कि प्रसादजी ने इन निबंधों में भारतीय दार्शनिक अनुक्रम का साहित्यिक अनुक्रम से युगपत संबंध तो स्थापित किया ही है प्रसंगवश दर्शन और साहित्य की समानता भी मानवात्मा के संबंध से सिद्ध की है। मुख्य-मुख्य दार्शनिक धाराओं के साथ मुख्य-मुख्य काव्य धाराओं का समीकरण करके इन दोनों का एक इतिहास भी प्रसादजी ने प्रस्तुत पुस्तक में हमारे सामने रक्खा है।

प्रसादजी की ये उद्‌भावनाएँ इतनी मार्मिक हैं, इनकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता का पुट इतना प्रगाढ़ है, और साथही इनकी मनोवैज्ञानिक विवृत्ति इतनी सुंदर रीति से हृदय का स्पर्श करती है कि हम सहसा यह भूल जाते हैं कि ये अधिकांश एकदम नवीन हैं, किसी क्रमागत विचारपरिपाटी से इनका संबंध नहीं है। किन्तु नवीन होना इनका दोष नहीं है, गुण ही है, क्योंकि परंपरागत शैली के अनुयायी तो केवल लीक पीट रहे थे। जब उन लीक पीटने वालों से हिन्दी का कल्याण होता नहीं दीखा और नवशिक्षित समाज की तीव्र दार्शनिक पिपासा शान्त नहीं हुई तभी तो