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किया तो परमेश्वर के ताण्डव के अनुकरण में, उस की संवर्धना के लिए, नृत्त में उल्लास और प्रमोद की पराकाष्ठा देख कर नाटकों में इस की योजना की। भरत ने भी कहा है―

प्रायेण सर्व लोकस्य नृत्तमिष्टं स्वभावतः

(४―२७१)

परमेश्वर के विश्वनृत्त की अनुभूति के द्वारा नृत्त को उसी के अनुकरण में आनन्द का साधन बनाया गया। भरत ने लिखा है कि त्रिपुरदाह के अवसर पर शंकर की आज्ञा से ताण्डव की योजना इस में की गयी। इन बातों से निष्कर्ष यह निकलता है कि नृत्त पहले बिना गीत का होता था, उस में गीत और अभिनय की योजना पीछे से हुई। और इसे तब नृत्य कहने लगे। इन का और भी एक भेद है। शुद्ध नृत्त में रेचक और अंगहार का ही प्रयोग होता था। गान वाद्य तालानुसार भौंह, हाथ, पैर और कमर का कम्पन नृत्य में होता था। ताण्डव और लास्य नाम के इस के दो भेद और हैं। कुछ लोग समझते हैं कि ताण्डव पुरुषोचित और उद्धत नृत्य को ही कहते हैं; किन्तु यह बात नहीं, इस में विषय की विचित्रता है। ताण्डव नृत्य प्रायः देव सम्बन्ध में होता था।

प्रायेण ताण्डपविधिर्देवस्तुत्याश्रयो भवेत्।

(४–२७५)

और लास्य अपने विषय के अनुसार लौकिक तथा सुकुमार