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होता था। नाट्य शास्त्रों में लास्य के जिन दश अंगों का वर्णन किया गया है वे प्रयोग में ही भिन्न नहीं होते थे, किन्तु उन के विषयों की भी भिन्नता होती थी। इस तरह नृत्त, नृत्य, ताण्डव और लास्य, प्रयोग और विषय के अनुसार, चार तरह के होते थे। नाटकों में इन सब भेदों का समावेश था। ऐसा जान पड़ता है कि आरम्भ में नृत्य की योजना पूर्व रंग में देव स्तुति के साथ होती थी। अभिनय के बीच-बीच में नृत्य करने की प्रथा भी चली। अत्यधिक गीत नृत्य के लिए अभिनय में भरत ने मना भी किया है। गीत वाद्ये च नृत्तेच प्रवृत्तेऽति प्रसंगतः। खेदो भवेत् प्रयोक्तृणां प्रेक्षकाणाम् तथैव च।

नाट्य के साथ नृत्य की योजना ने अति प्राचीन काल में ही अभिनय को सम्पूर्ण बना दिया था। बौद्ध काल में भी वह अच्छी तरह भारत भर में प्रचलित था। विनय पिटक में इस का उल्लेख है कि कीटागिरि की रंग-शाला में संघाटी फैला कर नाचनेवाली नर्त्तकी के साथ, मधुर आलाप करनेवाले और नाटक देखनेवाले अश्वजित् पुनर्वसु नाम के दो भिक्षुओं को प्रव्राजनीय दण्ड मिला और वे बिहार से निर्वासित कर दिये गये। (चुल्ल बग्ग)।

रंगशाला के आनन्द को दुःखवादी भिक्षु निंदनीय मानते थे। यद्यपि गायन और नृत्य प्राचीन वैदिक काल से ही भारत में थे (यस्यां गायंति नृत्यंति भूम्यां—पृथ्वी सूक्त) किन्तु अभिनय के साथ इन की योजना भी भारत में प्राचीन काल से ही हुई थी।