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इस प्रकार की विचारधाराओं और व्याख्याशैलियों की और प्रसादजी जैसे दो-चार इने-गिने विद्वानों की अभिरुचि हुई।

किन्तु परंपरागत व्याख्याशैली से दूर हट कर भी प्रसादजी ने प्राचीन सांकेतिक शब्दावली का, वह साहित्यिक हो या दार्शनिक, त्याग कहीं नहीं किया; अपितु अपनी दृष्टि से उसकी यथातथ्य व्याख्या ही की है। न उन्होंने उन पारिभाषिक शब्दों का अनुचित या अन्यथा प्रयोग ही किया है जैसा कि आधुनिक असंस्कृतज्ञ करने लगे हैं। इसका कारण यही है कि प्रसादजी ने दर्शन और साहित्य शास्त्रों का विस्तृत अध्ययन किया था और कहीं भी शाब्दिक खींचतान या अर्थ का अनर्थ करने की चेष्टा नहीं की। यह बात दूसरी है कि उनकी उपपत्तियाँ सब को एक-सी मान्य न हों किन्तु जिन्हें वे मान्य न हों वे भी उन्हें अशास्त्रीय नहीं कह सकते क्योंकि उनका आधार शास्त्र ही हैं। शास्त्रीय वस्तु को ही उन्होंने इतिहास और मानव मनोविज्ञान के दोहरे छन्नों से छान कर संग्रह किया है। इस छनी हुई वस्तु को अशुद्ध या अप्रामाणिक कहने के लिए साहस चाहिए।

अब मैं प्रसादजी की उन उपपत्तियों को जो इस पुस्तक में हैं संक्षेप में उपस्थित करके ही आगे बढ़ूँगा। 'काव्य और कला' निबंध में प्रसादजी की सब से मुख्य और महत्वपूर्ण उद्‌भावना यह है कि काव्य स्वतः आध्यात्मिक है, काव्य से ऊँची अध्यात्म नाम की कोई वस्तु नहीं। साहित्य शास्त्र में काव्यानन्द को ब्रह्मानन्द सहोदर कहा गया है और 'कविर्मनीषी परिभू : स्वयंभू' यह