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भारती में मत्तवारणी के संबंध में किसी का यह मत भी संग्रह किया गया है कि वह देवमंदिर की प्रदक्षिणा की तरह रंगशाला के चारों ओर बनाई जाती थी। मत्तवारणी बहिर्निर्गमनप्रमाणेन सर्वतो द्वितीय भित्ति निवेशेन दैवप्रासादाट्टालिका प्रदक्षिणासदृशी द्वितीया भूमिरित्यन्ये, उपरि मंडपांतर निवेशनादित्यपरे। किंतु मेरी समझ में यह मत्तवारणी रंगपीठ के बराबर केवल एक ही ओर चार खंभों से रुकावट के लिए बनाई जाती थी। मत्तवारणी शब्द से भी यही अर्थ निकलता है कि वह मतवालों को वारण करे। यह डेढ़ हाथ ऊँची रंगपीठ के अगले भाग में लगा दी जाती थी।

रंगमंच में भी दो भाग होते थे। पिछले भाग को रंगशीर्ष कहते थे और सब से आगे का भाग रंगपीठ कहा जाता था। इन दोनों के बीच में जवनिका रहती थी। अभिनव गुप्त कहते हैं―यत्र यवनिका रंगपीठ तच्छिरसोर्मध्ये। रंगमंच की इस योजना से जान पड़ता है कि अपटी, तिरस्करिणी और प्रतिसीरा आदि जो पटों के भेद हैं वे जवनिका के भीतर के होते थे। रंगशीर्ष में नेपथ्य के भीतर के दो द्वार होते थे। रंगशीर्ष यंत्रजाल, गवाक्ष, सालभंजिका आदि काठ की बनी नाना प्रकार की आकृतियों से सुशोभित होता था, जो दृश्योपयोगी होते थे। संभवतः यही मुख्य अभिनय का स्थान होता था।

पिंडीबंध आदि नृत्य-अभिनय के साधारण अंश, चेटी आदि के द्वारा प्रवेशक की सूचना, प्रस्तावना आदि जवनिका के बाहर