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कि उन में सब तरह के स्थानों का दृश्य दिखलाया जा सकता था; और जिस स्थान की वार्त्ता होती थी उस का दृश्य भिन्न कक्ष्या में दिखाने का प्रबंध किया जाता था। स्थान की दूरी इत्यादि का भी संकेत कक्ष्याओं में उन की दूरी से किया जाता था।

वाच्यम् वा मध्यमम् वापि तथैवाभ्यंतरम् पुनः
दूरम् व सन्निकृष्टम् वा देशाश्च परिकल्पयेत्।
यत्र वार्त्ता प्रवर्तेत तत्र कक्ष्याम् प्रवर्त्तते॥

रंगमंच में आकाशगामी सिद्ध विद्याधरों के विमानों के भी दृश्य दिखलाये जाते थे। यदि मृच्छकटिक और शाकुंतल तथा विक्रमोर्वशी नाटक खेलने ही के लिए बने थे, जैसा कि उन की प्रस्तावनाओं से प्रतीत होता है, तो यह मानना पड़ेगा कि रंगमंच इतना पूर्ण और विस्तृत होता था कि उस में बैलों से जुते हुए रथ और घोड़ों के रथ तथा हेमकूट पर चढ़ती हुई अप्सराएं दिखलाई जा सकती थीं। इन दृश्यों के दिखलाने में मोम, मिट्टी, तृण, लाख, अभ्रक, काठ, चमड़ा, वस्त्र और बाँस के फंठों से काम लिया जाता था।

प्रतिपादौ प्रतिशिरः प्रतिहस्तौ प्रतिस्वक्षम्
तृणजैः कीलजैर्माण्डैः सरूपाणीह कारयेत्।
यद्यस्य यादृशं रूपं सारूप्यगुणसंभवम्
मृन्मयं गव कृत्स्मं तु नाना रूपांस्तु कारयेत्।