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भांडवस्त्रमधूच्छिष्टैः लाक्षयाभ्रदलेन च
नमास्तु विविध कार्याः धर्मधर्मध्वजास्तथा।

(२४ अध्याय)

ऊपर के उद्धरणों से जान पड़ता है कि सरूप अर्थात् मुखौटों का भी प्रयोग दैत्य-दानवों के अंगों की विचित्रता के लिए होता था। कृत्रिम हाथ और पैर तथा मुखौटे मिट्टी, फूस, मोम, लाख और अभ्रक के पत्रों से बनाये जाते थे।

कुछ लोगों का कहना है कि भारतवर्ष में 'यवनिका' यवनों अर्थात् ग्रीकों से नाटकों में ली गयी है। किंतु मुझे यह शब्द शुद्ध रूप से व्यवहृत 'जवनिका' भी मिला। अमरकोष में―प्रतिसीरा जवनिका स्यात् तिरस्करिणी च सा; तथा हलायुध में―अपटी कांडपटः स्याम् प्रतिसारा जवनिका तिरस्करणी।

इस में 'य' से नहीं किंतु 'ज' से ही जवनिका का उल्लेख है। जवनिका से शीघ्रता का द्योतन होता है। जव का अर्थ वेग और त्वरा से है। तब जवनिका उस पट को कहते हैं जो शीघ्रता से उठाया या गिराया जा सके। कांड-पट भी एक इसी तरह का अर्थ ध्वनित करता है, जिस में पट अर्थात् वस्त्र के साथ कांड अर्थात् डंडे का संयोग हो। प्रतिसीरा और तिरस्करिणी भी साभिप्राय शब्द मालूम होते हैं। प्रतिसीरा तो नहीं किंतु तिरस्करिणी का प्रयोग विक्रमोर्वशी में एक जगह आता है। द्वितीय अंक में जब राजा प्रमोद वन में आते हैं तो वहीं पर