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आकाश-मार्ग से उर्वशी और चित्रलेखा का भी आगमन होता है। उर्वशी चित्रलेखा से कहती है, तिरस्करिणी परि परिच्छन्ना पार्श्ववर्त्तिनी भूत्वा श्रोस्ये तावत्। और फिर आगे चल कर उसी अंक में तिरस्करिणीम् अपनीम् तिरस्करिणी को हटा कर प्रगट होती है। प्रतिसीरा का भी प्रयोग संभव है। खोजने से मिल जाय, किंन्तु अपटी शब्द अत्यंत संदेहजनक है। मृच्छकटिक, विक्रमोर्वशी आदि में ततः प्रविशत्यपटीक्षेपेण कई स्थानों पर मिलता है। विक्रमोर्वशी के टीकाकार रंगनाथ ने यतः―नासूचितसय पात्रस्य प्रवेशो नाटके मतः इति नाटकसमयप्रसिद्धेर्यत्रा सूचित पात्र प्रवेशस्तत्राकस्मिक प्रवेशेऽपटीक्षेपेणेति वचनं युक्तम्। अत्र तु प्रस्तावनास्ते सूचितानामेवाप्सरसां प्रवेश इति। केचित्पुनः―न पटीक्षेपोऽपटीक्षेपे इति विग्रहं विधाय पटीक्षेपं विनैव प्रविशंतीति समर्थयन्ते तदप्यापाद्य कुचोयमाप्रमित्यारतां तावत्।

इस से जान पड़ता है कि प्रवेशक की सूचना अत्यंत आवश्यक होती थी और यह कार्य अंकों के आरंभ में चेटी, दासी या अन्य ऐसे ही पात्रों के द्वारा सूचित किया जाता था। उस के बाद अभिनय के वास्तविक पात्र रंगमंच पर प्रवेश करते थे। विक्रमोर्वशी में प्रस्तावना में ही अप्सराओं की पुकार सुनाई पड़ती है और सूत्रधार रंगमंच से प्रस्थान कर जाता है और अप्सराएं प्रवेश करती हैं। किंतु ऐसा प्रतीत होता हैं कि पटी अभी तक उठीं नहीं है और अप्सराओं का प्रवेश हो गया है। रंगमंच